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Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने भावपाहुड की गाथा सं० ४४ में सर्वप्रथम बाहुबली की चर्चा की और लिखा कि- "हे धीर वीर, देहादि के सम्बन्ध से रहित किन्तु मानव-कषाय से कलुषित बाहुबली स्वामी कितने काल तक आतापन योग से स्थित रहे ?"१ वस्तुतः बाहुबली चरित का यही आद्यरूप उपलब्ध होता है। यह कह सकना कठिन है कि कुन्दकुन्द ने किस आधार पर बाहुबली को अहंकारी कहा तथा उसके पूर्व वे क्या थे तथा आतापनयोग में क्यों स्थित रहे ? प्रतीत होता है कि कुन्दकुन्द के पूर्व कोई ऐसा कथानक प्रचलित अवश्य था, जिसमें बाहुबली का इतिवृत्त लोक-विश्रुत था और आचार्य कुन्दकुन्द ने उसे मानव-कषाय के प्रतिफल के एक उदाहरण के रूप में यहाँ प्रस्तुत किया । परवर्ती बाहुबलीचरितों के लेखन के लिए उक्त उक्ति ही प्रेरणा-स्रोत प्रतीत होती है।
आचार्य विमलसूरि कृत पउमचरियं' के चतुर्थ उद्देशक में "लोकट्ठिइ उसभ माहणाहियारो" नामक प्रकरण में भरत-बाहुबली संघर्ष की चर्चा हुई है। कवि ने उसकी गाथा सं० ३६ से ५५ तक कुल २० गाथाओं में उक्त आख्यान अंकित किया है। उसके अनुसार बाहुबली भरत के विरोधी थे और वे उसकी आज्ञा का पालन नहीं करते थे। अतः भरत अपनी सेना लेकर बाहुबली से युद्ध हेतु तक्षशिला जा पहुंचे। वहाँ दोनों की सेनाएं जूझ गयीं । नर-संहार से बचने के लिए बाहुबली ने दृष्टि एवं मुष्टि-युद्ध का प्रस्ताव रखा । भरत ने उसे स्वीकार कर इन माध्यमों से युद्ध किया, किन्तु उनमें वे हार गये। इस कारण ऋद्ध होकर उन्होंने बाहुबली पर अपना चक्र फेंका, किन्तु वह भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सका । भरत के इस व्यवहार से बाहुबली का मन विराग से भर गया और कषाययुद्ध के स्थान पर संयमयुद्ध अथवा परीषह-युद्ध के लिए वे सन्नद्ध हो गये।
आचार्य विमलसूरि का जीवन-वृत्तान्त अनुपलब्ध है। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् हर्मन याकोबी ने विविध सन्दर्भो के आधार पर उनका समय २७४ ई० माना है। यह भी अनुमान किया जाता है कि उन्होंने “पूर्व-साहित्य" की घटनाओं को सुनकर "राघवचरित" नाम का भी एक ग्रन्थ लिखा था, जो अद्यावद्यि अनुपलब्ध है।
उक्त पउमचरियं जैन-परम्परा की आद्य रामायण मानी जाती है । इसकी भाषा प्राकृत है। उसमें कुल ११८ पर्व (सर्ग) एवं उनमें कुल ८२६९ गाथाएँ हैं। उक्त ग्रन्थ को आधार मानकर आचार्य रविषेण ने अपने संस्कृत पद्मपुराण की रचना की थी।
तिलोयपण्णत्ती शौरसेनी आगम का एक प्रमुख ग्रन्थ माना जाता है। उसमें बाहुबली का केवल नामोल्लेख ही मिलता है और उसमें उन्हें २४ काभदेवों में से एक
१. भावपाहुउ, पृ० २६२।। २. पउमचरियं (वाराणसी १९६२) ४१३६-५५, पृ० ३३-३५ । ३. दे० पउमचरियं, अंग्रेजी, भूमिका, पृ० १५ । ४. दे. पउमचरियं, अंग्रेजी, भूमिका, पृ० १५। . ५. जीवराज ग्रन्थमाला (सोलापुर, १९५१, १९५६) से दो खण्डों में प्रकाशित ।
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