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arga fort का विकास एवं तद्विषयक साहित्य : एक सर्वेक्षण
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कहा गया है।" उसमें यह भी बताया गया है कि ये कामदेव २४ तीर्थंकरों के समयों में ड्डी होते हैं और अनुपम आकृति के धारक होते हैं ।
तिलपणी के कर्त्ता जदिवसह ( यतिवृषभ) का समय निश्चित नहीं हो सका है, किन्तु विविध तर्क-वितर्कों के आधार पर उनका समय ई० की ५वीं, ६ीं सदी के मध्य अनुमानित किया गया है । 3
प्रस्तुत ति० प० ग्रन्थ दिगम्बर जैन परम्परानुमोदित विश्व के भूगोल तथा खगोलविद्या और अन्य पौराणिक एवं ऐतिहासिक सन्दर्भों का अद्भुत विश्वकोष माना गया है । इस ग्रन्थ का महत्त्व इसलिए भी अधिक है कि ग्रन्थकार ने पूर्वागत परम्परा के विषयों की ही उसमें व्यवस्था की है, किन्हीं नवीन विषयों की नहीं । अतः प्राचीन भारतीय साहित्य, इतिहास एवं पुरातत्त्व की दृष्टि से यह ग्रन्थ मूल्यवान है । इसमें कुल ९ अधिकार तथा ५६५४ गाथाएँ हैं । इसका सर्वप्रथम आंशिक प्रकाशन जैन सिद्धान्त भवन, आराम तथा तत्पश्चात् जीवराज ग्रन्थमाला, सोलापुर से सर्वप्रथम अधुनातम सम्पादकीय पद्धति से हुआ है ।
अर्धमागधी आगम-साहित्य एवं उनकी टीकाओं के अनुसार बाहुबली ऋषभदेव की द्वितीय पत्नी सुनन्दा के पुत्र थे, वे एवं सुन्दरी (पुत्री) युगल के रूप में जन्मे थे । उन्हें वली का राज्य प्रदान किया गया था । उनकी राजधानी तक्षशिला थी । जब उन्होंने अपने भाई भरत का प्रभुत्व स्वीकार नहीं किया तब भरत ने उन पर आक्रमण कर दिया था । बाहुबली ने व्यर्थ के नरसंहार से बचने के हेतु व्यक्तिगत युद्ध करने के लिए भरत को तैयार कर लिया । उन दोनों में नेत्रयुद्ध, वाग्युद्ध एवं मल्लयुद्ध हुए । उनमें पराजित होकर भरत ने बाहुबली पर चक्ररत्न से आक्रमण कर दिया बाहुबली यद्यपि वीर-पराक्रमी थे, फिर भी भाई के इस कार्य से उन्हें संसार के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई और उन्होंने दीक्षा लेकर कार्योत्सर्ग मुद्रा में कठोर तपस्या की । उसमें वे इतने ध्यानमग्न थे कि पहाड़ी चीटियों ने बाँबी बनाकर उनके पैरों को उसमें ढँक लिया । इतना होने पर भी उन्हें जब कैवल्य की प्राप्ति नहीं हुई, तब उनकी बहिन ब्राह्मी और सुन्दरी ने उनका ध्यान उनके भीतर ही छिपे हुए अहंकार की ओर दिलाया । बाहुबली ने उसका अनुभव कर उसका सर्वथा परित्याग कर दिया और फलस्वरूप उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई । बाहुबली के
१-२ तिलोय पण्णत्ती - ४।१४७४, पृ० ३३७ ।
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैनधर्म का योगदान (डॉ० हीरालाल जैन), प्रकाशक - मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद, भोपाल, १९६२, पृ० ९६ ॥ तिलोय पण्णत्ती - प्रस्तावना, पृ० ९ ।
Tiloya Pannatti of Yati Vrishubha के नाम से प्रकाशित ( आरा, १९४१ ई०) ।
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