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बाहुबलि-कथा का विकास एवं तद्विषयक
साहित्य : एक सर्वेक्षण
डॉ० विद्यावती जैन बाहुबली प्राच्य-भारतीय वाङ्मय के अत्यन्त लोकप्रिय नायक रहे हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल एवं तेलगू भाषाओं में विविध-कालों की विविधशैलियों में उनका सरस एवं काव्यात्मक चित्रण मिलता है । इन ग्रन्थों में उपलब्ध चरित के अनुसार वे युगादिदेव ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र थे, जो आगे चलकर पोदनपुर-नरेश के रूप में प्रसिद्ध हुए । उनकी राजधानी तक्षशिला थी। उनके सौतेले भाई भरत चक्रवर्ती जव दिग्विजय के बाद अपनी पैतृक राजधानी अयोध्या लौटे, तब उनका चक्ररत्न अयोध्या में प्रविष्ट न होकर नगर के बाहर ही अटक गया। उनके प्रधानमन्त्री ने इसका कारण बतलाते हुए उनसे कहा कि “भरत की दिग्विजय-यात्रा अभी समाप्त नहीं हो सकी है, क्योंकि बाहुबली ने अभी तक उसका अधिपतित्व स्वीकार नहीं किया है। उस अहंकारी को पराजित करना अभी शेष ही है।" महाबली भरत यह सुनकर आग-बबूला हो उठे तथा उन्होंने तुरत ही अपने दूत के माध्यम से बाहुबली को अपना अधिपतित्व स्वीकार करने अथवा युद्ध-भूमि में मिलने का संदेश भेजा।
२१ वें कामदेव के रूप में प्रसिद्ध बाहुबली जितने सुन्दर थे, उतने ही बलिष्ठ, कुशल, पराक्रमी एवं स्वाभिमानी भी। वे भरत की चुनौती स्वीकार कर संग्राम-भूमि में उनसे आ मिले और अनावश्यक नर-संहार से बचने के लिए भरत के सम्मुख दृष्टि-युद्ध, जलयुद्ध एवं मल्लयुद्ध का प्रस्ताव रखा । भरत के स्वीकार कर लेने पर उसी क्रम से युद्ध हुआ और उनमें भरत की हार हुई। अपनी पराजय से क्रोधित होकर भरत ने बाहुबली की प्राण-हत्या के निमित्त उन पर अपना चक्र-रत्न छोड़ा, किन्तु चक्ररत्न नियमतः प्रक्षेपक के वंशजों को किसी भी प्रकार की हानि नहीं करता, अतः वह वापस लौट आया। बाहुबली अपने भाई के इस अमर्यादित एवं अनैतिक कृत्य से ग्लानि से भर उठे और सांसारिक व्यामोह का त्याग कर दीक्षित हो गये। उपलब्ध बाहुबली-चरितों की यही संक्षिप्त रूपरेखा है। इसी कथानक का चित्रण विविध कवियों ने अपनी-अपनी अभिरुचियों एवं शैलियों के अनुसार किया है। इस विषय पर शताधिक कृतियों का प्रणयन किया गया है, उनमें से जो ज्ञात एवं प्रकाशित अथवा अप्रकाशित कुछ प्रमुख कृतियाँ उपलब्ध हैं, उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ।
___ शौरसेनी-आगम-साहित्य में अष्टपाहुड़-साहित्य अपना प्रमुख स्थान रखता है । इसके प्रणेता आचार्य कुन्दकुन्द दि० जैन परम्परा के आद्य आचार्य एवं कवि माने गये हैं।
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