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________________ 71 युक्त्यानुशासन का सर्वोदयतीर्थ विरोधी अनेक धर्मों का निवास असंभव है ।" शंकराचार्य शायद यह भूल जाते हैं कि अपेक्षा भेद से यदि उनका परमार्थ और व्यवहार अलग-अलग सत्य हो सकता है, तो उसी प्रकार अपेक्षा भेद से एक ही नरसिंह एक भाग से नर होकर भी द्वितीय भाग की अपेक्षा सिंह है । एक ही धूपदान अग्नि से संयुक्त होकर भी पकड़नेवाले भाग में ठंडी एवं अग्निभाग में उष्ण है । यही कारण है कि म०म० फणिभूषण अधिकारी एवं डा० गंगानाथ झा जैसे विद्वानों को कहना पड़ा है कि " इस सिद्धान्त में बहुत कुछ ऐसा है, जिसे वेदान्त के आचार्यों ने नहीं समझा 'यदि वे जैन धर्म के मूल ग्रन्थों को देखने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैन धर्म का विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती ।" इसे म०म० अधिकारी अन्याय एवं अक्षम्य मानते हैं । डा० राधाकृष्णन् का यह समझना है कि "अनेकांत स्याद्वाद से हमें केवल आपेक्षिक अर्द्ध सत्य का ही ज्ञान हो सकता है । हम पूर्ण सत्य को नहीं जान सकते । दूसरे शब्दों में यह हमें अर्द्ध-सत्यों के पास लाकर पटक देता है और इन्हीं अर्द्ध सत्यों को पूर्ण सत्य मान लेने की प्रेरणा करता है । परन्तु केवल निश्चित अनिश्चित अर्धसत्यों को मिलाकर एक साथ रख देने से वह पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता । ये पूर्वाग्रह से भरे हैं । अनेकान्त अर्द्ध सत्य को हरगिज पूर्णसत्य मानने की प्रेरणा नहीं देता । बल्कि अर्द्ध सत्यों का समन्वय करने का प्रयास करता है ।" प्रमाणवार्तिक ( ३।१८० - ४ ) में धर्मकीर्ति के अनुसार तत्व ( एकान्तरूप ) ही हो सकता है, क्योंकि यदि सभी तत्वों को उभयरूप यानी स्व-पररूप माना जाय, तो पदार्थों का वैशिष्ट्य समाप्त हो जायगा । वस्तुतः धर्मकीर्ति भूल जाते हैं कि दो द्रव्यों में एक जातीयता होने पर स्वरूप की भिन्नता और विशेषता होती ही है । द्रव्य और पर्याय में भी भेद है ही । धर्मकीर्ति के शिष्य प्रभाकर गुप्त ( ' प्रमाणवार्तिक अलंकार' पृ० १४२ ) एवं हेतु बिन्दु के टीकाकार अर्यट (टीका, पृ० १४६ ) भी उत्पाद व्यय घोव्यात्मक परिणामवाद में दूषण पाते हैं और यह मानते हैं कि जब व्यय होगा तो सत्व कैसे होगा ? बौद्धाचार्य संभवत: भूल जाते हैं कि प्रत्येक स्वलक्षण परस्पर भिन्न है, एक दूसरे रूप नहीं है; अतः रूपत्वलक्षणत्वेन 'अस्ति' है और रसादि स्वलक्षणत्वेन 'नास्ति' है । अन्यथा रूप और रस मिलकर एक हो जायेंगे। शांत रक्षित ( तत्व संग्रह) ने "स्याद्वाद परीक्षा" नामक एक स्वतंत्र प्रकरण ही रचकर अनेकांत के उभयात्मकतावाद पर प्रहार किया । धर्मकीर्ति के टीकाकार कर्ण गौमि ने यह महसूस किया कि "जैनों का यह दर्शन नहीं है कि सर्व सर्वात्मक है या सर्व सर्वात्मक नहीं है ।" अतः प्रकृत दूषण नहीं है । " विज्ञप्तिमात्रतः सिद्धि” (२२) में भी अनेकांत पर "दो धर्म एक धर्मों से असिद्ध है" का दूषण लगाना व्यर्थ है, क्योंकि प्रतीत बल से ही उभयात्मकता सिद्ध होता है । तत्वोप्लव सिंह के लेखक जयराशि भट्ट भले ही अनेकांत का खंडन करते हैं 'लेकिन जब वे कहते हैं कि वस्तु न नित्य है, न अनत्य, न उभय और न अवाच्य ।' तो वे प्रकारान्तर से एकान्तवाद का खडन एवं अनेकांतवाद का समर्थन करते हैं । प्रशस्तिपाद भाष्य के टीकाकार श्री व्योमशिव भी इसमें "विरोधधर्मदोष" एवं अनेकांत में भी अनेकांत मानने से अनवस्था दोष देखते हैं । ब्रह्मसूत्र के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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