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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 अनेकान्तोऽपिः अनेकांतः प्रमाण नयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्तु तदेकान्तोऽपितन्नयात् ॥ १०३ स्वयम्भू स्तोत्र __ यानी सर्वांशग्राही प्रमाता की अपेक्षा वस्तु अनेकान्त-स्वरूप है। एवं अंशग्राही नय की अपेक्षा वह एकान्त रूप है। यानी वह अर्थचित् एकान्तवादी और कदाचित् अनेकान्तवादी है । एकान्त और अनेकान्त भी क्रमशः सम्यक् एवं मिथ्या, दो प्रकार के होते हैं । निरपेक्ष नय मिथ्या एकान्त है, और सापेक्ष नय सम्यक् एकान्त है, तथा सापेक्ष नयों का समूह (अर्थात् श्रुत प्रमाण) सम्यक् अनेकान्त और निरपेक्ष नयों का समूह मिथ्या अनेकान्त (अर्थात् प्रमाण भाग) है । कहा भी है ___“जंवत्थु अणेयन्तं, एयंत तं पि होदि सविपेक्खं । सुयणाणेण णएट्टि य, णिरवेक्खं दीसदे णैव ॥" राजवार्तिक (१।६) में अकलंक कहते हैं कि "यदि अनेकान्त को अनेकान्त ही माना जाय और एकान्त का सर्वथा लोप किया जाय तो सम्यक् एकान्त के अभाव में शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह, तत्समृदय रूप अनेकान्त का भी अभाव हो जायगा। अतः यदि एकान्त ही स्वीकार कर लिया जाये, तो फिर अविनाभावी इतर धर्मों का लोप होने पर प्रकृत शेष का भी लोप होने से सर्व लोप का प्रसंग प्राप्त होगा।" सम्यक् एकान्त नय है और सम्यक् अनेकांत प्रमाण । अनेकांतवाद सर्वनयात्मक है। जिस प्रकार बिखरे हुए मोतियों को एक माला में पिरो देने से एक सुन्दर हार बन जाता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न नयों को स्याद्वादरूपी सूत में पिरो देने से सम्पूर्ण नय श्रुत प्रमाण कहे जाते हैं(स्याद्वाद मंजरी, श्लोक-३०) परमागम के बीजस्वरूप अनेकांत में सम्पूर्ण नयों (सम्यक् एकान्तों) का विकास है । उसमें एकान्तों के विरोध को समाप्त करने का सामर्थ्य है।" परमागमस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुर विधानम् । सकलनय विलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। (पुरुषार्थ सिद्ध पाद अमृतचन्द्र) संक्षेप में जैसे विभिन्न अंधों को हाथी विभिन्न अपेक्षा से विभिन्नरूप में दिखायी पड़ता है, किन्तु अंशरूप से सत्य है, पूर्णरूप से नहीं । अतः हम परस्पर विविध विरोधी धर्मों का समन्वय बिठा सकते हैं। हाँ, यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु अनेक परस्पर विरोधी धर्म-समूह का पिण्ड है, तथापि वस्तु में संभाव्यमान परस्पर विरोधी धर्म ही पाये जाते हैं, असम्भाव्य नहीं। अन्यथा आत्मा में नित्यत्व अनित्वादि के सामने चेतन-अचेतनत्व धर्मों की संभावना का प्रसंग आयेगा (धवला १-१-१-११)। यह दुर्भाग्य है कि अनेकांत और स्याद्वाद के निर्दोष एवं समन्वयकारी तत्वज्ञान को भारतीय मनीषा के कुछ श्रेष्ठतम व्यक्तियों ने गलत समझ लिया। ब्रह्मसूत्र में "नेकस्मिन्सम्भवात्" (२।२।३३) का भाष्य करते हुए शंकराचार्य लिखते हैं कि “एक वस्तु में परस्पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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