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________________ युक्त्यानुशासन का सर्वोदयतीर्थं 69 सद् विप्रा बहुधा वदन्ति (ऋग्वेद १- १६४-४६) या उपनिषद् में " तदेजति तन्नजति तददूरेतदूरे तदन्तिके" ( ईश- ५) आदि कह कर "विरुद्ध धर्माश्रयत्व" को स्वीकार किया ही गया है । सुकरात में भी हम ज्ञान अज्ञान के सापेक्षवाद का अनूठा दर्शन पाते हैं, जब वे कहते हैं—“मैं ज्ञानी हूँ, क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि मैं अज्ञ हूँ । दूसरे ज्ञानी नहीं हैं, क्योंकि वे नहीं जानते हैं कि वे अज्ञ हैं ।” सुकरात के शिष्य अफलातू ने कहा कि “भौतिक पदार्थ संपूर्ण सत् और असत् के बीच के अर्द्ध सत् जगत् में रहते हैं।" और तर्क की भिन्न-भिन्न दृष्टियाँ होती हैं । भिन्नत्व तर्क में है, जीवन में नहीं । क्रोसे ने कहा है कि दो भिन्न कल्पनाएँ एक दूसरे के साथ भिन्न होने पर भी मिल सकती हैं । चिन्तन एवं कर्म भिन्न हैं, किन्तु विरोधी नहीं । शीत-उष्ण, पतला-मोटा, ऊँचा-नीचा आदि द्वन्द्वों में विभाजन की कोई ऐसी विभाजन रेखा नहीं है, जहाँ पर एक समाप्त होकर दूसरा प्रारम्भ होता है । एक ही जल भिन्न स्थिति में उष्ण या शीत कहा जा सकता है । एक रोटी को दूसरे की अपेक्षा मोटी या पतली दोनों कहा जा सकता है । जीवन में अनुभव यही कारण है कि "युक्त्यानुशासन" में 'सर्वोदय तीर्थ' को अनेकात्मक बताते हुए सामान्य विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध, एक-अनेक आदि विशेष धर्मों को समाहित किया गया है । इसमें एक धर्म मुख्य है, तो दूसरा धर्म गौण है । उसमें असंगतता अथवा विरोध के लिए कोई अवकाश नहीं है । जो विचार पारस्परिक अपेक्षा का प्रतिपादन नहीं करता, वह सर्वान्तशून्य माना जाता है । जिसमें किसी भी धर्म का अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसके कारण पदार्थ व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है । शासन ही सभी दुखों का अन्त करनेवाला है और यही आत्मा के है | अनेकांत सभी निरपेक्ष नयों या दुर्नयों का अन्त करनेवाला है मिथ्यादर्शन है, वही एकान्तवाद रूप है । अतः अनेकांत या सर्वान्तवान । सर्वोदय का मूलाधार समानता है । परन्तु स्वातंत्र्य और समानता, ये दो प्रबल द्वीप-स्तम्भ हैं । वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक है । प्रत्येक वस्तु अनेक गुणों और धर्मों से युक्त है । अनेकान्त शब्द 'अनेक' और 'अन्त' दो शब्दों से मिलकर बना है । अनेक का अर्थ होता है - एक से अधिक । एक से अधिक दो भी हो सकता है और अनन्त भी । दो और अनन्त के बीच अनेक अर्थ संभव हैं । 'अन्त' का अर्थ है 'धर्म' या 'गुण' । प्रत्येक वस्तु में अनन्त गुण विद्यमान हैं। वस्तुतः गुणात्मक वस्तु ही अनेकान्त है । किन्तु जहां अनेक का अर्थ दो लिया जायेगा, वहां अन्त का अर्थ धर्म होगा । तब यह अर्थ होगा । परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले दो धर्मो का एक ही वस्तु में होना अनेकान्त है । पूर्ण अभ्युदय का साधक जो निरपेक्ष है, वही यहाँ एक प्रश्न उठता है कि यद्यपि जैन दर्शन अनेकान्तवादी कहा जाता है, तथापि यदि उसे सर्वथा अनेकान्तवादी मानें तो यह भी तो एकान्त हो जायगा । अतः अनेकान्त में भी अनेकान्त को स्वीकार करना होगा । जैन दर्शन न सर्वथा एकान्तवाद को मानता है, न सर्वथा अनेकान्तवाद को —यही अनेकान्त में अनेकान्त है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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