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Vaishali Institute Research Bulletin No. 4
भाष्यकार भास्कर भट्ट भी विरोध और अनवधारण दोष देखते हैं । यह आश्चर्य है कि भास्कर स्वयं अपने सिद्धान्त में जगह-जगह पर भेदाभेदात्मक तत्व का समर्थन करते हैं, किन्तु अनेकांतवाद का खंडन करते हैं । विज्ञानभिक्षु (ब्रह्मसूत्र के विज्ञानामृतभाष्य २/२/३३ ) आपत्ति उठाते हुए कहते हैं कि " प्रकार-भेद के विना दो विरुद्ध धर्म एक साथ नहीं रह सकते ।” किन्तु अनेकान्त व्यवस्था में अपेक्षा भेद को स्वीकार किया ही गया है, जो प्रकार भेद को अस्वीकार कहाँ करता है ? श्री कंठ ( श्री कंठ भाष्य, ब्रह्मसूत्र २|२| ३३) भले ही पुरानी विरोधवाली दलील दुहराते हैं लेकिन उनके शिष्य अप्पयदीक्षित तो देशकाल और स्वरूप आदि अपेक्षा भेद से अनेक धर्म स्वीकार करना अच्छा मानते हैं । अफसोस यही है। कि वे कहते हैं - " स्याद्वादी बिना अपेक्षा के ही सब धर्म मानते हैं ।" यह नितान्त मिथ्यारोप है। श्री रामानुजाचार्य भी उसी प्रकार अपेक्षा भेद के आविष्कारक जैन आचार्यो को अपेक्षा भेद, उपाधि-भेद या प्रचार-भेद का उपदेश देते हैं । ( वेदान्तदीप, पृ० १११-१२ ) वल्लभाचार्य भी विरोध दूषण उपस्थित करते हैं, लेकिन मानते हैं कि "विरोध धर्म ब्रह्म में ही प्रमाणित हो सकता है ।" (अणुभाष्य २/२/३३) निम्बार्काचार्य स्वयं भेदाभेदवादी होकर अनेकान्त में सत्व और असत्व धर्मों को विरोध-दोष देते हैं (निम्बार्क भाष्य, ब्रह्म सूत्र २।२।३३) ।
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वास्तव में अनेक दृष्टियों से वस्तु स्वरूप का विचार करना न केवल जैन की, अपितु भारतीय दर्शन की परम्परा रही है। ऋग्वेद के " एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति” (ऋग्वेद २।३।२३, ४६ ) के पीछे यही अभिप्राय है । बुद्ध विभज्यवादी थे । अतः प्रश्नों का उत्तर अनेकांशिक रूप से देते थे - " असतो लोकोत्ति स्वोपोट्ठपाद मया अनेकसिको -- " दीघनिकाय, पोट्ठपाद (सुत्त) । ब्रह्मसूत्र में आचार्य आश्मरध्य और औडुलोभि (१।४।२० - २१) के भेदाभेद का मत आता है । स्वयं शंकराचार्य ने अपने भाष्य (२।३।६) में भेदाभेदवादी भर्तृप्रपंच के मत का खंडन किया है। सांख्य कारण रूप से प्रकृति को एक, परिणामरूप से अनेक मानते ही हैं। योगशास्त्र ने भी इसी तरह अनेकांत रूपात्मक परिणामवाद को माना है । (योग भाष्य व्यास भाष्य १| ४ | ३ ३ ) मीमांसक कुमारिल भी आत्मवाद में आत्मा का व्यावृति और अनुगम उभय रूप से समर्थन करते हैं ( मीमांसाश्लोक वार्तिक, २८ ) । आचार्य हेमचन्द्र ने ठीक ही लिखा है कि ज्ञान के अनेकाकार माननेवाले समझदार बौद्धों और अनेक आकारवाले एक चित्ररूप को माननेवाले नैयायिक और वैशेषिक को तो अनेकांत का हरणिज प्रतिक्षेप नहीं करना चाहिए । फिर तीन गुणोंवाली प्रकृति को मानने वाले सांख्य को तो और भी विरोध नहीं करना चाहिए। ( वीतराग स्तोत्र, १० )
जैनाचार्य अकलंक देव ने स्याद्वाद अनेकान्तवाद पर लगाये गये संशय, विरोध, व्यधिकरण, संकर, व्यतिकर, अनवस्था, अप्रतिपत्ति और अभाव - इन आठ दूषणों का परिहार (अष्टशती, अष्टसहस्री एवं प्रमाण - संग्रह में ) जिसे हम देख चुके हैं । संशय दोष लगाना गलत है,
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किया है । विरोध दोष ही मुख्य हैं जब दोनों धर्मों को अपने दृष्टिकोणों
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