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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 ठीक है कि सभी महान् पुरुषों के जीवन का लक्ष्य सत्यान्वेषण होता है, फिर भी सत्यनिरूपण की अपनी-अपनी पद्धति होती है । जैन दर्शन की यही दृष्टि अनेकांतात्मक है, जिसे युक्त्यानुशासन में 'सर्वोदय तीर्थ' कहा गया है। जहां अनेकान्त दृष्टि जैन-दर्शन का प्राण और जन-संस्कृति का हृदय है, वहीं जैनेतर दर्शनों का भी अनेकान्त कई अर्थों में आश्रयण देखा जाता है। आचार्य शांतिरक्षित ने यह स्पष्ट किया है कि जैनों के अलावे मीमांसक और सांख्य दर्शनों में भी अनेकान्त -दृष्टि का अवलंबन किया गया है। यह ठीक है कि मीमांसा और सांख्य योग दर्शनों में अनेकान्त विचार जैन ग्रन्थों की भांति स्पष्ट नहीं हो सका है और न उतना व्यापक ही है। अद्वैत वेदान्त ने भी जिस प्रकार परमार्थ, व्यवहार एवं प्रतिभास के सापेक्षवाद का प्रतिष्ठापन किया है, उसी प्रकार माध्यमिक बौद्धों ने भी परमार्थ, लोक-संवृत्ति और अलोव-संवृत्ति नाम से सत्य की तीन अवस्थाओं का वर्णन किया है। संक्षेप में प्रत्येक विचार किसी दृष्टि से किसी अवस्था में सत्य है। शायद इन्हीं कारणों से शंकर को सौपानवादी भी कहा गया है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति भी इसी सापेक्षतावाद का संकेत करते हैं। प्रख्यात निरपेक्षवादी ब्रडले भी स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक भ्रान्ति में सत्य का यत्किचित अंश रहता है। एक तमिल लोकोक्ति में कहा गया है-"दृष्टं किमपि लोके स्मिन् न निर्दोषं न निर्गुणम्'। इसका अर्थ होता है कि अपने दृष्टि-बिन्दु के साथ ही अन्य दृष्टि बिन्दु भी हैं । यह तभी संभव है, जब हमारे हृदय में सहानुभूति की भावना हो, जो दया या करुणा नहीं, बल्कि दूसरे की भावनाओं में प्रवेश करके उसे समझने का प्रयास है। सत्यान्वेषी वैदिक ऋषि दीर्घतमा विश्व के मूल कारण एवं स्वरूप को अन्वेषण करते हुए अनेक प्रश्न करते हैं और अंत में यह कह देते हैं "एक सद्विप्राः बहुधा वदन्ति | दीर्घतमा के इस उद्गार में मानव-स्वभाव की विशेषतास्वरूप समन्वयशीलता का दर्शन होता है, जिसका शास्त्रीय रूप ही अनेकान्तवाद में परिलक्षित होता है। नासदीय-सूक्त (१०।१२९) में “सत्" एवं "असत्" जैसे सभी मतवादों का समन्वय है । इसी प्रकार भगवान बुद्ध ने मध्यम मार्ग में अवलम्बन के लिए 'प्रतीत्यसमुत्पाद' का उपदेश किया। (संयुक्त निकाय, बारह ३५२, अंगुत्तर निकाय ३) विभज्यवाद, शाश्वतवाद एवं उच्छेदवाद दोनों को छोड़कर मध्यम मार्ग का उपदेश देता है (संयुक्त निकाय, बारह १७, बारह २४)। जिस प्रकार उपनिषदों ने आत्मवाद एवं ब्रह्मवाद की पराकाष्ठा के साथ आत्मा और ब्रह्म को नेति-नेति द्वारा अवक्तव्य एवं सभी विशेषणों से परे बताया गया है । (माण्डूक्य, छठाँ ७ बृहद च० ५, ४५)। इसी प्रकार तथागत बुद्ध ने भी आत्मा के विषय में उपनिषदों के बिलकुल विपरीत मान्यता रखते हुए भी इसे अव्याकृत माना है। जिस प्रकार उपनिषद् ने परमतत्व को अवक्तव्य मानते हुए भी अनेक प्रकार से आत्मा का वर्णन किया, उसी प्रकार बुद्ध लोकसंज्ञा, लोक-निरुक्ति, लोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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