________________
'युक्त्यानुशासन' का 'सर्वोदय-तीर्थ
प्रोफेसर रामजी सिंह, एम० ए०, डी० लिट्० सर्वोदय की भावना चाहे जितनी प्राचीन और व्यापक क्यों न हों, आधुनिक युग में यह शब्द गांधी-विचार से जुड़ गया है। मेरी जानकारी में संस्कृत के प्रामाणिक शब्दकोषों में भी इस शब्द का उल्लेख नहीं है। लेकिन जैन दार्शनिक वाङ्मय के सिंहावलोकन से यह पता चलता है कि आगमयुग के बाद ही अनेकांत-स्थापन युग में सिद्ध-सारस्वत स्वामी समन्तभद्र ने अपनी पुस्तक "युक्त्यानुशासन" में "सर्वोदय तीर्थ" का प्रयोग किया है--
सन्तिक्त्तदगुण-मुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च भिधौऽनपेक्षम् ।
सर्वाऽऽपदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥६१।। __यहाँ सर्वोदय-तीर्थ, विचार-तीर्थ के रूप में प्रयुक्त हुआ है। यही धर्म-तीर्थ भी है । यही जैन तत्वज्ञान का मर्म है। सर्वोदय-तीर्थ अनेकांतात्मक शासन के रूप में व्यवहृत हुआ है। अनेकांत विचार ही जैन दर्शन, धर्म और संस्कृति का प्राण है। यह भगवान् महावीर से भी पुराना है । जैन अनुश्रुति के अनुसार भगवान महावीर ने अपने पूर्ववर्ती तीथंकर पार्श्वनाथ के ही तत्व-चिंतन का प्रचार किया, स्वयं अपना कोई स्वतंत्र और नवीन विचारतंत्र नहीं रक्खा । यही नहीं, तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ ने अरिष्टनेमि की परम्परा का पालन किया और अरिष्टनेमि ने प्रागैतिहासिक काल के तीर्थकर नभिनाथ के विचार-तत्व को अपनाया। इसी तरह हम प्रथम तीथंकर ऋषभदेव तक पहुंच जाते हैं, जहाँ हमें वेद से लेकर उपनिषद् तक सम्पूर्ण दार्शनिक साहित्य का मूल स्रोत मिलता है। अतः जैन-चिंतन एवं तत्वज्ञान के पीछे भगवान महावीर से पूर्व भी अनेक पीढ़ियों के परिश्रम एवं साधना का फल है।
जीव-अजीव के भेदोपभेद, मोक्ष, कर्म, लोक-रचना, परमाणुओं की वर्गणाओं आदि के प्रश्नों पर भगवान् महावीर ने प्राचीन जैन परम्पराओं को स्वीकार किया, लेकिन जीव-परमाणु का संबंध-निरूपण आदि के प्रश्नों पर उन्होंने एक नवीन दार्शनिक दृष्टि प्रदान की, जो उनका सबसे महत्त्वपूर्ण अवदान है। हमें यह मालूम होना चाहिए कि तत्वज्ञान और धर्म, पंथ और सम्प्रदाय की अपनी एक आधारभूत दृष्टि होती है। शांकर मत में "अद्वैत दृष्टि', बौद्ध मत में विभज्यदृष्टि, जैन विचार में अनेकांत दृष्टि, हीगेल में द्वन्द्वदृष्टि, मार्क्स की आर्थिक और फ्रायड की 'काम' दृष्टि है। इन दर्शनों में तात्विक विचारणा अथवा आचार-व्यवहार चाहे जो भी हो, वह सब अपनी-अपनी आधार-दृष्टि को ध्यान में रखकर ही चलते हैं। यही उनकी अपनी विशिष्टता या कसौटी होती है। यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org