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________________ जैन धर्म में अहिंसा और ब्रह्मचर्यं 59 आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम सूत्र से ही जीवों का वर्णन प्रारम्भ होता है और समूचे प्रथम अध्ययन में छः प्रकार के जीवों की हिंसा तथा उससे बचने का उपदेश है । इससे साफ प्रकट होता है कि अहिंसा महाव्रत ही प्रधान और सबसे महत्त्वपूर्ण है और इसमें सभी व्रतों के नियमोपनियमों का अन्तर्भाव हो जाता है । यहाँ इस बात को विशेष रूप से स्मरण रखना चाहिए कि जैन धर्म में अहिंसा की पूर्णरूपेण व्युत्पत्ति का दार्शनिक आधारस्तम्भ राग-द्वेष ही है । इसी राग-द्वेष की कसौटी पर सभी व्रत प्रमाणित किये गये हैं । जैन साधु आचार के मूल तत्त्व -अहिंसा, ब्रह्मचर्यं आदि ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में पहले कहा जा चुका है। जैन धर्म की आधारशिला अहिंसा के ऊपर साधु आचार का विशाल भवन, ब्रह्मचर्य, आधारित है । भिक्षा, शय्या आदि साधु आचार के जितने भी नियम हैं, उन सब में विशेष परिस्थितिवश कुछ-न-कुछ अपवाद एवं शिथिलता की गुंजाइश है, किन्तु ब्रह्मचर्य के पालन में जरा भी ढिलाई का स्थान नहीं दिया गया है । इसका कारण राग-द्वेष कहा गया है । यह स्पष्ट बताया गया है कि चूंकि राग-द्वेष के बिना मैथुन में प्रवृत्ति नहीं होती, अतः ब्रह्मचर्य का पालन निरपवाद रूप से करने का आदेश है । जिस तरह तैलादि से लिप्त शरीर पर धूल लग जाती है, उसी तरह राग-द्वेष से स्निग्ध जीव को आठों कर्म प्रकृति घेर लेती है । अतः किसी भी स्थिति में ब्रह्मचर्य से विचलित होने की अनुज्ञा नहीं है। बल्कि वैसी स्थिति की आशंका के पूर्व संलेखना से अथवा गार्द्ध - पृष्ठादि किसी विधि से शरीर त्यागने का विधान है । चूर्णि एवं टीका के शब्दों में ऐसा ध्वनित होता है कि भिक्षु के सामने स्त्री-जनित ब्रह्मचर्य से च्युत करनेवाले उपसर्गों के आने पर वह मैथुन में प्रवृत्त होने के पहले ही मृत्यु को अच्छा समझे - किसी भी भाँति अपना पतन न होने दे । साधु फाँसी लगा ले, विष भक्षण कर ले अपने शरीर को गीध आदि को खिला दे, ऊपर से गिर पड़े - -अनशन से प्राण त्याग दे - किन्तु ब्रह्मचर्य से च्युत न हो। ऊपर कथित किसी भी विधि से प्राण त्याग देने का साधु को आदेश दिया गया है । इससे स्पष्ट झलकता है कि जैन साधु आचार ब्रह्मचर्य का अहिंसा के समान ही महत्त्वपूर्ण विधान है । मन fifeoमात्र भी विकृति के संचार को बुरा समझा गया है । अन्य धर्म-ग्रन्थों में भी मन की उक्त प्रकार की विकृति गर्हित समझी गयी और वैसी स्थिति में शरीर त्याग को श्रेयस्कर बताया गया है । किन्तु, जैनधर्म के समान अपवाद रहित प्रतिज्ञा-वचन वहाँ नहीं है । स्त्री-जन्य उपसर्ग से पीड़ित हो कर सुदर्शन के प्राण त्याग की कथा प्रसिद्ध है । यह भी कहा गया है कि भूतकाल में भिक्षुओं ने वैसी स्थिति में प्राण त्याग कर सिद्धि पायी है । सुदर्शन का उदाहरण ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए आया है । दीर्घ कालीन भक्त-परिज्ञा द्वारा सयमपूर्वक संलेखना करने से जितने कर्मों का क्षय होता है, उतने ही कर्मों का क्षय संयम एवं समाधियुक्त अवस्था में साधु वैहानस, गार्द्ध-पृष्ठादि मरणों से कर डालता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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