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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 राग-द्वेष कषाय आ घेरते हैं, जो संसार वृक्ष की जड़ें हैं। इन कामनाओं का कारण मोहनीय कर्म कहा गया है । इनमें लिप्त मानव को सुख-शान्ति नहीं मिलती है। अभिलषित पदार्थ न मिलने पर वह शोच करता है, मर्यादा खो बैठता है और शारीरिक, मानसिक एवं वाचनिक दुःखों से परितप्त होता हुआ, पश्चात्ताप करता है । आचारांग सूत्र ९३ में साफ-साफ कह दिया गया है कि जैसे यह शरीर भीतर से अपवित्र है, वैसे ही उसे बाहर से भी अपवित्र समझना अभिप्रेत है । इस शरीर की बाहर-भीतर दोनों से असारता स-झ कर मनुष्य को राग-द्वेष को छोड़ कर आत्मोन्नति के मार्ग में आगे बढ़ना चाहिए । यही वीरों का प्रशंसित मार्ग है । इतना ही नहीं, काम-भोगों में आसक्त मनुष्य के नाना तरह पीड़ोत्पादक रोग पीछे लगे रहते हैं । आचारांग सूत्र ८४ को चूर्णि एवं टीका में खुलासा इस बात की अभिव्यक्ति है कि मनुष्य स्त्रियों के हाव-भाव - कटाक्ष से व्यथित होते और मोहनीय कर्म में बंध कर नरक आदि दुःखों को भोगने को विवश होते हैं । शीतोष्णीय अध्ययन के द्वितीय उद्देशक के सूत्र २ में लिखा है कि कामों में लिप्त मनुष्य कर्मों का संग्रह करता है । वहीं सूत्र ४ की टीका में जोरदार शब्दों में कहा गया है जिस प्रकार सेनानायक के मारे जाने पर सारी सेना नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार एक मात्र मोहनीय कर्म के क्षय होने पर सभी अष्ट-कर्म- प्रकृति बन्ध नष्ट हो जाते हैं । आचारांग के सूत्र में अग्र और मूल --- दो शब्द आये हैं । मोहनीय कर्म को मूल और शेष को अग्र कहा गया है । चूर्ण में मूल और अग्र शब्द की व्याख्या विस्तार से करते हुए लिखा गया है कि मोहनीय कार्य मूल हैं और शेष कर्म - प्रकृतियाँ अग्र । इन उद्धरणों से हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि साधु आचार के महाव्रतों में ब्रह्मचर्य का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है । आचारांग सूत्र १८१ की चूर्णि और टीका दोनों ने इस बात का समर्थन किया है कि काम राग आदि को ज्ञान से समझ कर स्नेह से उत्पन्न माता-पिता के सम्बन्ध को त्यागकर ब्रह्मचर्य में स्थित होने से शांति प्राप्त होती है— उपशम प्राप्त होता है । यह सब होता तब है, जब मुनि वीतराग हो जाता है । वीतराग न होने से साधु या श्रावक कोई हो, मोहोदय के कारण धर्म - पालन में समर्थ नहीं हो पाता है । यहाँ वीतराग को 'वसु' और सराग को 'अनुवसु' शब्द से सम्बोधित किया गया है। पहले जिन अहिंसा आदि छः महाव्रतों का जिक्र हुआ है, उनमें रात्रि भोजन निषेध का समावेश अहिंसा महाव्रत में हो जाता है । अपरिग्रह महाव्रत में अदत्ता दान और मैथुन का अन्तर्भाव हो जाता है । रात्रिभोजन निषेध यह बाद में जोड़ दिया गया है । उक्त पाँच महाव्रतों की ही परिगणना प्रायः शास्त्रों में की गयी है । रात्रि के समय भोजन-पान आदि का सीधे स्वास्थ्य से सम्बन्ध है । कति य रोगों में रात्रि भोजन-परित्याग लाभप्रद समझा भी गया है । दूसरे, जीवहिंसा (कीट-पतंग) की संभावना भी रात्रि भोजन में विशेष रूप से रहती है । अतः अहिंसा-प्रधान धर्म रहने के कारण रात्रि - भोजन निषेध को पंच महाव्रतों में परिगणित करना, बहुत ही उपयुक्त और संगत है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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