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जैन धर्म में अहिंसा और ब्रह्मचर्यं मजाक और उनकी मैथुनावस्था का निरीक्षण दूर से छोड़ दे । कर्मबन्ध किसी अन्य प्रसंग से वैसा नहीं होता, जैसा स्त्रियों की पराकाष्ठा पर पहुँचने की अभिलाषा रखनेवाले को स्त्रियों की संगति से देवमाया रूप स्त्री के हाव-भाव से जो मुग्ध हो जाता है, वह अग्नि में अन्धकार के गर्त में पड़कर नष्ट हो जाता है । भिक्षु काठ की बनी स्त्री को न छुए।
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आचारांग सूत्र ४२ की व्याख्या करते हुए चूर्णि में कहा गया है कि जो व्यक्ति हिंसा में अगुप्त है, वह शेष व्रतों में भी अगुप्त है । पुनः आचारांग सूत्र ६१ में साधु के लिए छः जीव-निकायों की हिंसा से विरत होने का उपदेश दिया गया है । यहाँ चूर्णि ने स्पष्ट उद्घोषित किया है कि जो इन छः महाव्रतों में से किसी एक के पालन में असमर्थ है, वह शेष व्रतों के पालन में भी अकृतकार्य होता है ।
ब्रह्मचर्य महाव्रत जैन साधु आचार में प्रधान स्थान रखता है । इसकी प्रधानता का इससे अधिक कोई दूसरा प्रमाण खोजने की जरूरत नहीं कि अन्य नियमों के पालन में परिस्थितिवश कहीं-कहीं अपवाद रूप से शिथिलता की गुंजाइश है भी, पर ब्रह्मचर्य के पालन में साधु को जरा भी ढिलाई बरतने का आदेश नहीं है । आचारांग सूत्र की टीका करते हुए टीकाकार ने स्पष्ट लिखा है कि 'राग-द्वेष' के अतः जिनेन्द्र भगवान् ने मैथुन छोड़ कर अन्य बातों में नियमपूर्वक का प्रतिज्ञा वचन नहीं रखा ।
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साधु को क्लेश और संगति से । योग की
बचना चाहिए । पतंग की भाँति, पैर से भी
लोक विजय अध्ययन के पंचम उद्देशक के सूत्र ९२ में स्पष्ट लिखा है कि दो तरह के काम हैं --- इच्छा काम और मदन काम । मदन काम में शब्दादि विषय माने गये हैं । आचारांग नियुक्ति गाथा १७६ में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया है कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस, एवं गन्धये पाँचों इन्द्रियों के विषय पाँचों काम गुणों में बरतते है और इनके कारण
भागवत ११।१४ । ३३ ।
भागवत ११।१४।३० ।
वही ३।३१।१८, ११।८।७, ११।८।१३ ।
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विना मैथुन नहीं होता,
करने अथवा न करने
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प्रस्तुत आध्यात्मिक सूक्ति से अक्षरश: जैन धर्म के 'मदन काम' का भाव व्यक्त होता है :
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“कुरंग-मातंग-पतंग-भृ ंग- मीना हताः पञ्चभिरेव पंच । एकः प्रमादीति कथं न हन्यते यः सेवते पञ्चभिरेव पंच" ॥
अर्थात् हरिन - हाथी - पतंग-भृंग-मत्स्य ये पाँचों पृथक्-पृथक् ( क्रमशः) शब्द - स्पर्श-रूप-रस- गन्ध के कारण ( एक रस के कारण ) नष्ट हो जाते हैं, फिर जो (मानव) पाँचों इन्द्रियों के उक्त पाँचों धर्मो का एक साथ व्यवहार करता हो--- उसके नष्ट होने में सन्देह ही क्या ?
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