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Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 अष्टविध कर्मबन्ध आदि बुराइयों का कारण माना गया है। अतः सारे पाप-कर्मों का कारण मैथुन है। यह समझते हुए उसके पालन पर बिना किसी तरह के अपवाद के जोर दिया गया है।
जैन साधु के लिए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और रात्रि-भोजननिषेध आदि छः महाव्रतों का पालन अनिवार्य और अपरिहार्य है। किन्तु अहिंसा तथा ब्रह्मचर्य पर अधिक बल दिया गया है । नियुक्ति, चूणि एवं टीका में पद-पद पर अहिंसा
और ब्रह्मचर्य का पालन सर्वोपरि, अनिवार्य एवं अभीष्ट समझा गया है। अतः इन दोअहिंसा एवं ब्रह्मचर्य में शेष महात्रतों का समाहार समझ लिया जाय तो कोई बाधा संभवत: नहीं है। अहिंसा जैन साधु आचार का ध्येय है, लक्ष्य है और उसके पालनार्थ शेष व्रत एवं नियमोपनियम हैं। ब्रह्मचर्य के अन्दर सारे ब्रतों एवं नियमोपनियमों का अन्तर्भाव हो जाता है । अतः अहिंसा एवं ब्रह्मचर्य-जैन साधु आचार के मूल तत्त्व हैं ।
ब्रह्मचर्य महावत
जैन साधु आचार में अहिंसा आदि छः महाव्रतों में ब्रह्मचर्य भी है। इनमें अहिंसा एवं ब्रह्मचर्य विशेष महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुतार्थ ब्रह्मचर्य है । आचारांग में 'ब्रह्म'शब्द की चार तरह से स्थापना की गयी है । भारतीय संस्कृति में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासइन चार आश्रमों की मान्यता है। मनु ने ब्रह्मचर्य की अवस्थापरक व्याख्या की है। प्रति वेद के अध्ययन के लिए बारह वर्ष की अवधि रख तीनों वेदों के लिए उन्होंने छत्तीस वर्षों की अवधि जोड़ी है और छत्तीस वर्षों तक ब्रह्मचर्य-पालन का विधान किया । ब्रह्मचर्य अवस्था में शिष्य 'ब्रह्मचारो' शब्द से अभिहित होता है। इस बीच उसे अविप्लुत ब्रह्मचर्थ से रहने का आदेश होता है । अविप्लुत ब्रह्मचर्य का अर्थ यह है कि ब्रह्मचारी को मधु, मांस, गंध, माल्य, गुड़ आदि रस, शुक्त आदि अम्ल, मैथुन एवं हिंसा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। तैलाभ्यंग, अंजन, पादत्राण, छत्र-धारण, कामचर्वा, क्रोध, लोभ, नृत्य, गीत, वाद्य, जुआ खेलना, बकवास, निन्दा, असत्य-भाषण, स्त्रियों को कामेच्छा से निरीक्षण, दूसरों को हानि पहुँचाना आदि भी, ब्रह्मचारी के लिए वजित हैं। इसके अतिरिक्त ब्रह्मचारी को विविक्त शय्या पर ही शयन करने का उपदेश दिया गया है।
जैन साधु आचार में 'ब्रह्म' शब्द की निक्षेपपूर्वक व्याख्या की गयी है। किन्तु, ब्रह्मचर्य से एक मात्र सर्वात्मना मैथुन-त्याग का विधान है। यहाँ तक प्रतिबन्ध है कि जैन साधु इस सम्बन्ध में मनुष्य योनि की स्त्री जाति की तो बात ही क्या, स्त्री योनि के पशुपक्षी का भी स्पर्श न करे। यही नियम जैन साध्वी के लिए पुरुष-स्पर्श न करने के सम्बन्ध में है।
भागवत में साधु के लिए स्थान-स्थान पर ब्रह्मचर्य पर बहुत बल दिया गया है । कहा है कि साधु, स्त्रियों को देखना, उनका स्पर्श करना, उनसे संलाप, उनके साथ हँसी
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