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Vaishali Institute Research Bulletin No. Ź कर्मों के लय के लिए एकमात्र मन की स्वस्थता एवं समाधि ही अपेक्षित है। उक्त विवेचन से यह दृढ़ता के साथ निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जैन भिक्षु के लिए ब्रह्मचर्य-पालन के लिए अपवाद नहीं रखा गया बल्कि ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए अन्य विहित नियमों में अपवाद की गुजाइश रख दी गयी-यहाँ तक कि संलेखना के उत्कृष्ट एवं अन्तिम नियमों में भी अपवाद किये गये ।
___ साधु आचार के सम्बन्ध में आचारांग का आगमों में सर्वोपरि स्थान है। साधु आचार के सभी विषयों का समावेश आचारांग में है। आचारांग में प्रत्येक सिद्धान्त का विश्लेषण भाव एवं द्रव्य-इन दो दृष्टियों से किया गया है। सभी जगह अर्थाभिव्यक्ति के लिए भाव और द्रव्य सिद्धान्त की दृष्टि अपनायी गयी है।
जैन धर्म साधु और गृहस्थ, दोनों के लिए यद्यपि सैद्धान्तिक दृष्टि से एक समान है, किन्तु, नियमों के पालन में बड़ा अन्तर है। साधुओं के नियम कठोर तथा अनिवार्य होते हैं और गृहस्थों के सरल एवं निवार्य । जैन साधु के आचार के मूल तत्त्वों में अहिंसा और ब्रह्मचर्य मुख्य हैं। अहिंसा जैन साधु के आचार का ध्येय है और अन्य आचार उसकी (अहिंसा की) पूत्ति के साधन हैं। सर्व-साधारण में जैन धर्म की ख्याति अहिंसा व्रत को लेकर ही है।
__यहाँ, सिद्धान्त एवं व्यवहार-दोनों में ही-अहिंसा को बड़ी दृढ़ता और अन्तिम रूप से ग्रहण किया गया है। कहीं भी लचरपन नहीं वरता गया। स्थूल जीवधारियों से लेकर वनस्पति कायिक जीव जो आँखों से नजर नहीं आते-वायुकायिक जीवों तक निज को बचाने का आदेश है। यहाँ तक कि अग्निकायिक जीवों का भी अस्तित्त्व स्वीकार कर उनकी हिंसा भी न करने का विधान किया गया है। ये सारी बातें व्यावहारिकता की सीमा के बाहर हैं, इन का सर्वथा पालन भी संभाव्य नहीं है। फिर भी अहिंसा के सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप साधु और गृहस्थ अपने-अपने नियमों के अनुसार देते हैं । अहिंसा और ब्रह्मचर्य, दोनों में ब्रह्मचर्य-पालन पर ही अपवाद-रहित बल दिया गया है । सारे पाप-कर्म को जड़ राग-द्वेष हैं और इन्हीं के कारण मैथुन-भाव का संचार होता है । राग-द्वेष से मुक्त हो जाने पर स्वाभाविक रूप से चलते-फिरते हिंसा की संभावना बनी ही रहती है। किंतु, राग-द्वेष से मुक्त होने पर ब्रह्मचर्य के भंग का अवसर ही नहीं आता। इस बात को यहाँ स्पष्ट कर दिया गया है कि अन्य पाप-कर्मो का सद्भाव और असद्भाव, राग-द्वेष के ऊपर एकान्त रूप से निर्भर नहीं है। राग-द्वेष से पाप होंगे अवश्य ही, पर इनके अभाव में भी हो सकते हैं। यद्यपि ऐसे पापों के फलस्वरूप किसी प्रकार का घातीकर्मबन्ध नहीं स्वीकार किया गया है। किंतु यदि राग-द्वेष का अभाव रहे, तो ब्रह्मचर्य भंग हो ही नहीं सकता। अत: जिस पापकर्म का उद्गम राग-द्वेष से हो और राग-द्वेष छोड़ देने पर उसका सर्वथा अभाव हो जाय, तब तो उस महान् पाप-कर्म को सभी पापकर्मों में प्रधान समझना ही चाहिए।
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