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Vaishali Institute Research Bulletin No. 3
प्राकृतेनात्र यैरा, मदर्थमिव सञ्चिताः । पितृकल्पाः कवीन्द्रास्ते, जयन्ति जिनशासने । प्रकृस्या प्राकृतं प्राज्ञेवुयाख्येयं यथास्थितम् ।
अतः संस्कृतपूर्वार्थान्, श्रोतृणां कथयाम्यहम् ॥' इन संस्कृत कवियों ने अपने ग्रन्थ के अन्त में इतना तो अवश्य कहा है कि भगवान् पार्श्व जिनेन्द्र के निर्वाण के दिन से सौ वर्ष बाद यह मलयसुन्दरी हुई थी, एवं उसके चरित को सर्वप्रथम के शि गणि ने कहा था, जिसे हम (गुजरात) के राजा श्रीमान् शंख के समक्ष कह रहे हैं। श्रीमाणिक्यसुन्दर ने इतना और कहा है कि उन्होंने इस कथा को मूल (प्राकृत) कथा से न तो संक्षेप किया है और न ही विस्तार दिया है। क्योंकि अति संक्षेप करने से कथा समझने में कठिनाई होती और विस्तार करना कठिन है । यथा
संक्षेपोऽनवबोधाय विस्तरो दुस्तरो भवेत् । न संक्षेपो न विस्तारः कथितश्चेह तत्कृते ॥
-उल्लास ४, पृ० ५७ प्राकृत मलयसुंदरीचरिय का संस्कृत रूपान्तरण वि० सं० १४५६ में हुआ है और प्राकृतकृति की एक पाण्डुलिपि में लेखनकाल वि० सं० १५४६ है। अत: इसके पूर्व ही लगभग १४ वीं शताब्दी में यह कथा प्राकृत में लिखी गयी होगी। इसका कर्ता कौन था, यह प्रश्न विचारणीय है। सम्भवतः प्राकृत ग्रन्थ के अन्तःसाक्ष्य से इस पर कुछ प्रकाश पड़ सके ।
___ मलयसुंदरीचरियं की तीन प्राकृत पाण्डुलिपियों का अब तक पता चला है । हमने अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर में जाकर इन तीनों पाण्डुलिपियों की प्रति तैयार की है। प्रतियों का परिचय इस प्रकार हैक-प्रति इसमें कुल ३५ पन्ने हैं, जो दोनों ओर लिखे हुए हैं। लिखावट और स्याही
की दष्टि से यह प्रति सबसे प्राचीन है। लगभग १५ वीं शताब्दी इसका लेखनकाल है। ग्रन्थ में कुल १३०० प्राकृत गाथाएँ हैं।
१. जयतिलक, मलयसुन्दरीचरित्रं, श्लोक ( -९ __ श्रीमत्पार्श्व जिनेन्द्रनिर्वृत्तिदिनात् याते समानां शते । संजज्ञे नृपनन्दना मलयतः सुन्दर्यसौ नामतः ॥ एतस्याश्चरितं यथा गणभृता प्रोक्तं पुरा के शिना । श्रीमच्छंखनरेश्वरस्य पुरतोऽप्यूचे मयेदं तथा ।
-म० सु० च० (जय तिलक) प्र० ४, श्लो० ८२४ ३. देशाई, जैनसाहित्यनो इतिहास, अनु० ६८१, पृ० ४६७
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