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________________ 45 भाचार्य विद्यानन्द का एक विशिष्ट चिन्तन है, क्योंकि प्रमाता और प्रमिति, ये दोनों प्रमाण से मिन्न होने पर भी प्रमेय रूप ही हैं। अतः विधिः अनुभय रूप भी नहीं है। इसी प्रकार विधि को शब्द व्यापार रूप या पुरुष व्यापार रूप या उभय व्यापार रूप और अनुभय व्यापार रूप मानना भी निर्दोष नहीं है। विधि (परम ब्रह्म) किसका स्वभाव है ? :--विधि के विषय में नियोग की तरह यह भी जिज्ञासा होती है कि वेदान्ती विधि को विषय का स्वभाव मानते हैं या फल का स्वभाव या नि.स्वभाव मानते हैं ।२. विधि विषय स्वभाव नहीं है :--विधि को विषय का स्वभाव मानना ठीक नहीं है। अन्यथा अन्यापोहवाद स्वीकार करना पड़ेगा। क्योंकि, 'सर्व वै खल्विदं ब्रह्म' इत्यादि वाक्य के समय विषय निकट नहीं होते हैं। अतः विधि विषय स्वभाव नहीं है। विधि को फलस्वभाव मानने से फल (ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति होना) का उस समय सन्निधान न होने से विधि का अवतरण नहीं हो सकता। क्योंकि, आत्म-श्रवण, आत्म-मनन रूप फल उत्तर काल में ही होगा और उक्त फल को विधि काल में मान लेने पर विधि की आवश्यकता समाप्त हो जाती है । अतः विधि को फल स्वभाव मानना भी युक्तिसंगत नहीं है । विधि निःस्वभाव भी नहीं है :---विधि को निःस्वभाव मानना भी ठीक नहीं है । विधि को निःस्वभाव मानने पर उससे किसी भी व्यक्ति की आत्मा को श्रवण, मनन, आदि में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। जैसे गगन-कुसुम, खर-विषाण आदि शब्दों के उच्चारण करने में किसी की प्रवृत्ति नहीं होती है । इसके अतिरिक्त विधि सत् रूप है या असत् रूप ही है या उभय रूप या अनुभय रूप है ? ये विकल्प भी विधि के विषय में अवतरित होते हैं । विधि सत् रूप नहीं है :-यदि विधि का सत् रूप ही माना जाय, तो जिज्ञासा होती है कि फिर किसके विधान के लिए उसका विधान किया जाता है ? क्योंकि पुरुष के स्वरूप की तरह तत् की उपलब्धि हो ही जाती है। अत: विधि को सत् रूप नहीं माना जा सकता है। विधि असत् रूप भी नहीं है :–यदि विधि असत् रूप है ही, तो खरविषाण की तरह उसका कभी विधान नहीं हो सकता । विधि को उभय रूप मानना भी निर्दोष नहीं है ? :-विधि को उभय रूप ही मानना भी तर्कसंगत नहीं है। क्योंकि, विधि जब सत् रूप ही होगी, तब वह असत् रूप १. प्रमात्रदेरपि प्रमेयत्थोपपत्तेः । अन्यथा तर प्रमाणवृतेरभावात् सर्वथा वस्तु वहानिः । वही। २. द्रष्टव्य अष्टसहस्री, पृ० १४ । ३. वही-पृ० १४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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