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________________ 44 Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 उससे भिन्न प्रमेय की परिकल्पना करना आवश्यक है। यदि विधिवादियों की ओर से कहा जाय कि आत्मा का स्वरूप ही प्रमेय है, तो यह कथन भी संगत नहीं है। क्योंकि, विधि निरंश और केवल सत्ता रूप ही है। उसमें प्रमाण और प्रमेय दोनों रूप नहीं बन सकते हैं। इस दोष के निवारणार्थ वेदान्तियों के प्रत्युत्तर में भावनावादियों का कथन है कि यदि अविद्या के द्वारा दोनों की कल्पना की जाय, तो अन्यापोह को शब्दार्थ माननेवाले बौद्धों का निषेध वेदान्तियों को नहीं करना चाहिए। वे भी तो ज्ञान में अप्रमाणत्व की व्यावृत्ति से प्रमाणत्व और अप्रमेयत्व की व्यावृत्ति से प्रमेयत्व की व्यवस्था कर सकते हैं। वेदान्ती यदि ऐसा तर्क करें कि शब्द वस्तु का अवधायक न होकर अन्यामोह का अवधायक है तो आलोचकों का उत्तर है कि ऐसा मानने पर किसी नियत अर्थ में प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। अतः अन्यापोह शब्द का अर्थ नहीं है, तो वस्तु स्वरूप का अवधायक होने पर भी शब्द यदि अन्यापोह का अवधायक न हो तो अन्य का परिहार करके किसी विवक्षित में ही प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? इसलिए विधि भी शब्दार्थ नहीं हो सकती। इसी तरह विधि को प्रमाण मानने पर विभिन्न बाधाएं आती हैं।' विधि को प्रमेय रूप मानना भी ठीक नहीं है :-विधि प्रमेय रूप भी सिद्ध नहीं होती है। क्योंकि, विधि प्रमेय तभी सिद्ध हो सकती है, जब प्रमाण हो । अतः वेदान्तियों को बतलाना पड़ेगा कि अप्रमाण किसे मानते हैं।२ उपनिषद वाक्य प्रमाण रूप नहीं हैं :-विधि को प्रमेय सिद्ध करने के लिए वेदान्ती उपनिषद वाक्य को प्रमाण नहीं मान सकते हैं, क्योंकि उपनिषद वाक्य अचेतन है । जो अचेतन होता है, उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता है । अत: उपनिषद वाक्यों में प्रमाण सिद्ध होने के कारण विधि को प्रमेय मानना ठीक नहीं है । _ विधि प्रमाण-प्रमेय रूप भी नहीं है :-अब यदि विधि को प्रमाण-प्रमेय दोनों कहा जाय, तो वेदान्तियों का यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि, वेदान्तियों ने विधि को निरंश एवं सत्ता रूप ही स्वीकार किया है। उस निरंश अर्थात् अंशहीन विधि में प्रमाणरूपता और प्रमेय-रूपता, इन दो अंशों की कल्पना नहीं बन सकती है । विधि अनुभव रूप भी नहीं है :-यदि विधिवादी वेदान्ती विधि को अनुभय रूप माने तो आकाश-पुरुष की तरह विधि अवस्तु हो जायेगी। क्योंकि, प्रमाण प्रमेय से विहीन कोई वस्तु नहीं होती है। विधि का प्रमाण प्रमेय से रहित मानने पर उसका अन्य कोई स्वभाव व्यवस्थित नहीं होता है । वेदान्ती ऐसा नहीं कह सकते हैं कि प्रमाण और प्रमेय से भिन्न प्रमाता (ज्ञाता) और प्रमिति (जान से रूप किया) के द्वारा विधि व्यवस्थित होती १. दृष्टव्य अष्ट सहस्री, पृ० १०-१३ । प्रमेय रूपो विधिरिति कल्पनायमपि प्रमाणमन्यद्वाच्य पिति-वही । ३. प्रमाण प्रमेय स्वभाव रहितस्य विधेः स्वाभावान्तरेण व्यवस्थानायोगात् । अ० स०, पृ० १३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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