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आचार्य विद्यानन्द का एक विशिष्ट चिन्तन
आचार्य प्रभाचन्द्र ने भी न्यायकुमुद चन्द्र में यही तर्क दिया है ।"
नियोग फल-सहित या फल-रहित ? नियोग के विषय में यह प्रश्न भी होता
है कि नियोग का कोई फल है या नहीं ? यदि उस का कोई फल नहीं है तो कोई भी समझदार उससे यज्ञादि में प्रवृत्त नहीं होगा । लोक में प्रसिद्ध है कि 'प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोपि न प्रवर्तते ।' अर्थात् - मूर्ख भी बिना फल के प्रवृत्ति नहीं करता है ।
अब यदि माना जाय कि नियोग का कोई फल है तो प्रवर्तक फलाकांक्षा ही समझी जायेगी, नियोग नहीं । क्योंकि, जो फल के इच्छुक होते हैं, उनकी प्रवृत्ति बिना प्रेरणा के भी होती हुई देखी जाती है। इस तरह सिद्ध है कि वेद-वाक्य का अर्थ नियोग नहीं है । इसी तरह शुद्ध कार्यादि ग्यारह प्रकार के नियोग पर विचार करने से वाक्य का अर्थ नियोग भी निर्दोष नहीं प्रतीत होता है ।
विधिवाद :-- - नियोगवाद तक तार्किक खंडन करने पर प्रश्न होता है कि क्या वेदवाक्य का अर्थ विधि है या भावना ? इस विषय में ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्ती का मत है कि बेद वाक्य का अर्थ विधि है, भावना नहीं । विधिवादी अपने पक्ष के समर्थन में कहते हैं कि 'आत्मावारे दृष्टव्यो श्रोतव्योनुमन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' इत्यादि श्रुतिवाक्यों को सुनकर श्रोता की प्रवृत्ति आत्मा के श्रवण, मनन और निदिध्यासन में होती है । अतः श्रुतिवाक्य का अर्थ विधि अर्थात् आत्मा को मानना चाहिए और आत्मा ही परम ब्रह्म है ।
विधिवाद की समीक्षा : -- विद्यानन्दाचार्य ने नियोगवाद की तरह विधिवाद का खंडन भी भाट्ट मीमांसकों के अनुसार किया है । दूसरे शब्दों में भावनावादी भाट्ट ने विधिवाद का खंडन विविध तर्कों द्वारा किया है । नियोगवादियों की तरह विधिवादियों से वे प्रश्न करते हैं कि विधि का स्वरूप क्या है ? क्या विधि प्रमाणरूप है या प्रमेयरूप या उभयरूप या अनुभय रूप या पुरुष व्यापार रूप या शब्द रूप या दोनों के व्यापार रूप या अनुभय रूप ? इन विविध विकल्पों में से किसी भी विकल्प को विधि मानना अबाधित एवं तर्क-संगत नहीं है ।
विधि को प्रमाण रूप नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि, उसे प्रमाण रूप मानने पर प्रश्न होता है कि प्रमेय क्या है ? क्योंकि विना प्रमेय के प्रमाण का व्यापार नहीं हो सकता है । प्रमेय को जानता है, उसे ही प्रमाण कहा गया है। अतः विधि को प्रमाण मानने पर
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पृ० ५८७-५८८ ।
(क) अष्टसहस्री, पृ० ९, त० पृ० २६४ ।
विस्तृत समीक्षा के लिए द्रष्टव्य, अ० स०, पृ० ९-१० । त० श्लो० वा०, पृ० २६४-२६५ | न्यायावतारवार्तिक वृत्ति, पृ० ५६-५७ ।
अष्ट सहस्री, पृ० १० ।
श्लोकवार्तिक अध्याय – १,
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सू० ३२,
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