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Vaishali Institute Research Bulletin No. 3
कैसे होगी ? दूसरी प्रकार असत् रूप ही मानने पर वह सतु रूप कैसे होगी ? अतः विधि को उभय कप मानना निर्दोष नहीं है ।
fafar अनुभe भी नहीं है : विधि को अनुभय रूप मानने पर एक का निषेध करने पर दूसरे का विधान और दूसरे का विधान करके पहले का निषेध अवश्यम्भावी है । सर्वथा सत् की तरह सर्वथा असत् का निषेध करके कथंचित् सत् और कथंचित्-असत् का प्रतिपादन करने पर जैनमत मानना पड़ेगा ।
विधि प्रवर्तक स्वभाव या अप्रवर्तक स्वभाव :- विधि के विषय में एक यह भी प्रश्न होता है कि विधि प्रवर्तक स्वभाव है या अप्रवर्तक स्वभाव ?
यदि विधि प्रवर्तक स्वभाव है तो वेदान्तियों की तरह बौद्धों की भी "आत्मावारे द्रष्टव्यो श्रोतव्यः” आदि श्रुत-वाक्यों को सुन कर प्रवृत्ति आत्मा में होनी चाहिए । लेकिन ऐसा होता नहीं है । अतः सिद्ध है कि विधि प्रवर्तक स्वभाव नहीं है ।
अब यदि विधि को अप्रवर्तक स्वभाव माना जाय तो बौद्धों की तरह वेदान्तियों को भी उक्त वाक्य सुनकर आत्मा में प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त विधि को अप्रवर्तक स्वभाव मानने पर उसे नियोग की तरह वाक्यार्थ भी नहीं माना जा सकता४४ । अतः विधि अप्रवर्तक स्वभाव रूप नहीं है ।
विधि फल- रहित है या फल-सहित :- विधि के विषयों में यह भी प्रश्न होता के है कि विधि का कोई फल नहीं ? यदि विधि का कोई फल नहीं है तो बिना फल वह कैसे प्रवर्तक हो सकती है ? अर्थात् नियोग की तरह फल - रहित विधि प्रवर्तक नहीं हो सकती । फल-सहित मानने पर लोगों की फलाकांक्षा ही प्रवर्तक होगी, विधि नहीं । अतः ऐसी स्थिति में विधि को वाक्यार्थ मानना निरर्थक है ।
उपनिषद वाक्य विधि से भिन्न है या अभिन्न ? : -- यहाँ यह भी चिन्तनीय है कि उपनिषद वाक्य को आप विधि से अतिरिक्त मानते हैं या अभिन्न । यदि उपनिषद वाक्य को विधि से अतिरिक्त मानते हैं, तो द्वैत सिद्ध मानना पड़ेगा, जो विधिवादियों के सिद्धान्त के विरुद्ध है । अब यदि यह माना जाय कि उपनिषद वाक्य विधि से अभिन्न है तो उपनिषद वाक्य के अचेतन होने से विधि भी अचेतन हो जायेगी" ।
इस प्रकार सूक्ष्म विचार करने पर विधि भी श्रुति-वाक्य का अर्थ सिद्ध नहीं
होता है ।
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सकृदुभयप्रतिषेधे तु कथञ्चित्सदसत्त्व विधानान्मतान्तरानुषङ्गात् कुतो विधिरेवं वाक्यार्थः:--। वही, पृ० १४ ।
वही, पृ० १४ (४४) वही ।
किञ्च विधि फलरहितो वा स्यात् फलसहितो वा ? वही, पृ० ४१ |
विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य अष्टसहस्री, पृ० १६ ।
विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य वही, पृ० १६-१९ ।
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