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आचार्य विद्यानन्द का एक विशिष्ट चिन्तन:
__ "नियोग भावनाविधि" डॉ० लाल चन्द्र जैन, एम० ए०, पी० एच० डी०
आचार्य विद्यानन्द का जैन दार्शनिकों में एक विशिष्ट स्थान है। डॉ० दरबारी लाल कोठिया ने ऊहापोह-पूर्वक उनका समय निर्धारण करते हुए उन्हें ईस्वी सन् ७७५-८४९ का माना है। इन्होंने अष्ट सहस्री, तत्वार्थ श्लोकवार्तिक, आप्त परीक्षा आदि कृतियों के द्वारा जैनवांङ्मय को समृद्ध किया है। इन महान् कृतियों में नियोग-भावना-विधि,२ जाति समीक्षा, सह क्रमानेकान्त, व्यवहार और निश्चयनय द्वारा वस्तु विवेचन शैली, उपादान और निमित्त का विचार आदि नूतत चिन्तन उपलब्ध है।
नियोग-भावना और विधिवाद का आचार्य विद्यानन्द ने सूक्ष्म और विशद विवेचन किया है। इस प्रकार का विवेचन इनके पूर्ववर्ती किसी जैन तार्किक-दार्शनिक ने नहीं किया। इनके उत्तरवर्ती प्रभाचन्द्र, शान्तयाचार्य प्रभृति जैन आचार्यों ने आचार्य विद्यानन्द का अनुकरण कर नियोगवाद की मीमांसा की है। यहाँ पर भावना, नियोग और विधि की संक्षिप्त मीमांसा प्रस्तुत है ।
वैदिक-दार्शनिक परम्परा में वेद महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। विभिन्न वैदिक चिन्तक वेदवाक्यों के अर्थ के विषय में एकमत नहीं प्रतीत होते हैं। इस विषय में तीन प्रकार की परस्पर-विरोधी विचारधाराएँ उपलब्ध हैं :--
(१) प्रभाकर और उनके मतानुयायियों ने वेद-वाक्य का अर्थ नियोग माना है । (२) कुमारिल भट्ट और उनके मतानुयायी भावनावादी हैं ।
(३) अद्वैत वेदान्ती मत में वेदवाक्य "अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकामः” का अर्थ विधि माना गया है।
१. द्रष्टव्य-महावीर जयन्ती स्मारिका, सन् १९७२, पृष्ठ २९३-९९ । २. (क) अष्टसहस्री, कारिका ३, पृष्ठ ५-३५ ।
(ख) तत्वार्थश्लोक वार्तिक १।४।३२, पृ० २६१-२६७ । न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-२, पृष्ठ ५८२-५९७ । (४-१) न्यायावतार वार्तिक वृत्ति पृ०५७-५८, (२) न्यायकुमुद चन्द्र, द्वितीय
भाग, आगमन परीक्षा, का० २६, पृ० २८२-१९८ । ५. न्यायावतारवार्तिक-वृत्ति, पृ० ५७-५८ ।
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