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________________ 34 Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 थी कि वैशाली महावीर का जन्म-स्थान था। फिर उन्होंने अपने मुनि-जीवन के कम से कम पांच वर्षावास वैशाली में ही बिताये।' देवदत्त जैसे प्रभावशाली बौख स्थविर के कार्य-कलाप भी जैन सिद्धान्त से अत्यधिक प्रभावित लगते हैं। प्रारम्भ में सीह सेनापति भी एक कट्टर जैन श्रावक था, जो बाद में बुद्ध के प्रभाव में आकर उनका उपासक बन गया। पड़ोसी जनपदों यथा-मगध, कोशल आदि के साथ वज्जिजनपद का सम्बन्ध साधारणतया मैत्रीपूर्ण था। किन्तु मगधराज बिम्बिसार की मत्यु के पश्चात् अजातशत्रु ने लिच्छवियों को अपने अधिकार में करने का निश्चय किया। बुद्धघोष के अनुसार अजातशत्रु के इस निर्णय का कारण गंगा के बीच स्थित एक बन्दरगाह था। एक योजन में फैले हुए इस बन्दरगाह के आधे भाग पर लिच्छवियों एवं आधे पर मगध का कब्जा था। इसके पास ही एक पर्वत था, जिससे कोई सुगन्धित पदार्थ निकलता था। जब तक अजातशत्रु अपना हिस्सा लाने के लिए तैयार होता, तब तक लिच्छवि लोग पूरा का पूरा उठाकर ले जाते । इस तरह की घटना कई बार हो जाने पर अजातशत्रु ने लिच्छवियों से बदला लेने का निश्चय कर अपने महामंत्री वस्सकार को बुद्ध के पास उनका विचार जानने हेतु भेजा।" बुद्ध से यह जान कर कि लिच्छवि लोग अपनी सुदृढ़ एकता के कारण अजेय हैं, लिच्छवियों में भेद डालने के लिए अजातशत्रु ने वस्सकार को वैशाली भेजा। वस्सकार को इसमें सफलता मिलते ही अजातशत्रु ने आक्रमण कर आपसी फूट के कारण दुर्बल लिच्छवियों को अपने कब्जे में कर लिया। लिच्छवियों के अनायास ह्रास के कई कारण मालूम पड़ते हैं। यह उल्लेख किया जा चुका है कि उनके आदि-पुरुष ही झगड़ालू प्रकृति के थे, जिसके कारण ही उनका एक नाम वज्जि पड़ा। फिर वयोवृद्ध लिच्छवि महानाम स्वयं बुद्ध से लिच्छवियों की निन्दा करते देखे जाते हैं.-"भन्ते, ये लिच्छवि-कुमार चण्ड, परुष एवं लोभी हैं। ऊख, बैर, पुए, मिठाई आदि जो कुछ उपहार उनके कुल को भेजा जाता है, उन्हें बे लूटकर खा जाते हैं। अपने कुल की महिलाओं एवं कन्याओं को पीछे से थप्पड़ मारते हैं। लिच्छवि लोग १. देखें, लेखक की पुस्तक 'स्टडीज इन बुद्धिस्ट ऐण्ड जैन मोनै किज्म', पृ० १७७-७८ । २. चुल्लवग्ग, पृ० २९७-३०० । महावग्ग, पृ० २४८-५२ ४. संभवतः गंगा के बीच स्थित यह बन्दरगाह वर्तमान वैशाली जिले का राघोपुर प्रखण्ड है, जिसके चारों ओर से गंगा बहती है। पर सम्प्रति यहाँ कोई पर्वत नहीं है। ५. दी० नि०, भाग-२, पृ० ५८; दी० नि० अ०, भाग-२, पृ० २१५-१६ । ६. दी० नि०, अ०, भाग-२, पृ० २२४ । ७. अं० नि०, भाग-२, पृ० ३३८-३९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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