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________________ प्राकृत और संस्कृत का समानान्तर भाषिक विकास ललिए महुरक्खरए जुवईजणवल्लहे ससिंगारे | सन्ते पाइअकव्वे को सक्कइ सक्कअं पढिउम् ॥ ( वज्ला लग्ग : जयवल्लंह) (ललिते मधुराक्षरे युवतिजनवल्लभे सशृंगारे | सति प्राकृतकाव्ये कः शक्नोति संस्कृतं पठितुम् II) अर्थात्, मधुर अक्षरोंवाले, अत्यधिक मनोरम, युवतियों के लिए प्रीतिकर एवं श्रृंगार रस से ओतप्रोत प्राकृत काव्य को छोड़ संस्कृत-काव्य को कौन पढ़ना चाहेगा ? Jain Education International 21 ऐसी सम्भावना असहज नहीं कि देश, जलवायु आदि के प्रभाव से अथवा कण्ठ, तालु, जिह्वा आदि के विलक्षण अभिघात से या उच्चारणेन्द्रियों की अपटुता से या और भी किन्हीं कारणों से प्राकृत आदि भाषाओं की उत्पत्ति हुई हो, परन्तु इतना तो निश्चित है कि विभिन्न वर्गों के लोगों की पारस्परिक भाषिक स्पर्धा के कारण प्राकृत ने पर्याप्त प्रसार प्राप्त कर लिया । वैदिक आर्यों के साथ जब जनों - बौद्धों आदि का धार्मिक संघर्ष उपस्थित हुआ, तब वैदिक आर्यो की अपनी धर्मभाषा संस्कृत हुई और उन आर्यों की प्रतिद्वन्द्विता में जैनों ने प्रमुखतया अर्ध-मागधी प्राकृत और बौद्धों ने पालि ( प्राकृत का ही एक भेद) को अपने धर्मप्रचार के लिए अपनाया । इस प्रकार रूप - संरचना की बहुलता कारण यह प्राकृत जब प्रोढ़ि प्रकर्ष को पा गयी, तब इसके लिए 'मध्ययुग' की कालसीमा निर्धारित की जाने लगी । अनादिकाल से ही, संस्कृत, अपने स्वाभाविक सौष्ठव और क्रमशः प्राप्त संस्कार से उत्पन्न अनिवंच सौन्दर्य की महिमा से बुद्धिवादियों के लिए अतिशय अभिनन्दनीय रही, और इसी संस्कृत का पदानुसरण एवं उसके साहित्य - वैभव - रस, गुण, अलंकार आदि का अनुदान ग्रहण करके प्राकृत भी धीरे-धीरे प्रौढि की पर्याप्तता और माधुर्य की अतिशयता से एकबारगी भर गयी । श्री सम्पन्नता का यही काल प्राकृत का पूर्ण उपचय -काल माना गया । किन्तु किसी का अतिशय उत्कर्ष भी प्रकारान्तर से उसके अपकर्ष का कारण बन जाता है । अपने उपचय या चरमोत्कर्ष काल में प्राकृतभाषा साहित्यिक भाषा बन गयी, और ऐसी स्थिति में, जिस बात का खतरा बराबर बना रहता है प्राकृत भी व्यावहारिक भाषिकता से दूर होती चली गयी । भाषाविदों का यह प्रसिद्ध मत है कि व्याकरण के नियमों की मर्यादा में जकड़ जाने पर कोई भी भाषा व्यावहारिक नहीं रह जाती है । परिणामतः साधारण जनता के बीच किसी एक दूसरी ही व्यवहारोपयोगी भाषा की उत्पत्ति का सूत्रपात होने लगता है । संस्कृत की भी यही दशा हो चुकी थी और नियम नियन्त्रित प्राकृत को भी यह अनिवार्य दुर्दिन देखना ही पड़ा । प्राकृतः अपभ्रंश के परिप्रेक्ष्य में : इसी सन्दर्भ में हम अपभ्रंश के परिप्रेक्ष्य को लेकर थोड़ा और विचार करें । 'देववाणी' संज्ञा को प्राप्त संस्कृत भाषा में अनेक संस्कारों के अविर्भाव के कारण जब वह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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