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Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 जनसामान्य के लिए कठिन पड़ने लगी, तब आसाधारण समुज्ज्वल दृढ़ संस्कार-सम्पन्न, किन्तु स्त्री-बच्चों आदि के लिए उच्चारण में सौकर्य-रहित उस संस्कृत में विकृति उत्पन्न को जाने लगी, किन्तु उसका आधार यथावत् रहने दिया गया। इस प्रकार, संस्कृत का जो विकृत रूप लोगों के लिए प्राकृत (सुखोच्चार्य एवं सुबोध्य) हो गया, वही 'प्राकृत' की संज्ञा में अभिहित होने लगा। और, जब 'प्राकृत' भी उज्ज्वल नेपथ्यवाली होकर अनेक अलंकारों से चमकने लगी, तब उसकी भी स्थिति अनावश्यक गहनों से लदी एक शिथिल सुन्दरी से अधिक बेहतर न रह सकी। साधारण वेश-भूषावाली स्त्रियाँ जिस प्रकार अपने गृहकार्यों को बड़ी खूबी से निबटाती हैं, नख से शिखा तक अलंकृत मर्यादित महिलाएं उस प्रकार नहीं निबटा पाती, तथावत् अलंकृत प्राकृतभाषा भी जनोपयोगी कार्यों के लिए कारगर न सिद्ध न होने पर शनै:-शनैः व्यावहारिकता से तटस्थ होती चली गयी, साथ ही, तटस्थ होने के कारण, उसमें विकृति भी उत्पन्न की जाने लगी। फलतः, उसकी जगह कार्य-व्यवहार के क्षेत्र में अपभ्रंश-भाषा ने जन्म लिया और, जब अपभ्रश-भाषा भी क्रम-क्रम से सौष्ठव-बुद्धि और साहित्यिक संस्कारों से उद्भासित होकर पुस्तकस्था हो गयी, तब व्यवहार के लिए उसी अपभ्रश के आधार पर प्रादेशिक भाषाओं की उत्पत्ति हुई, ऐसा सभी भाषातत्ववेत्ता जानते और मानते हैं। जिस समय प्राकृत और अपभ्रंश पुस्तकस्था भाषा बनी, उसी समय (सन् ११५० ई०) हेमचन्द्राचार्य ने प्राकृत के व्याकरण
और कोश की रचना की। इन दोनों रचनाओं के अन्त में अपभ्रश के नियम और संस्कार संगृहीत हैं । अस्तु । प्राकृत : विभिन्न विद्वानों के अभिमत :
प्राकृत की उपर्युक्त उत्पत्ति और व्युत्पत्ति की विवेचना ही अलम् नहीं है। इस सम्बन्ध में अनेक भारतीय और भारतीयेतर विद्वानों ने विभिन्न मत प्रकट करते हुए, अपने पक्ष के समर्थन में, बहुविध रोचक तर्क उपस्थित किये हैं। प्राचीन पण्डितों में हेमचन्द्रसूरि के अतिरिक्त मार्कण्डेय (प्राकृतसर्वस्व), धनिक (दशरूपक-टीका), वासुदेव (कर्पूरमंजरी-टीका), लक्ष्मीधर (षड्भाषाचन्द्रिका), सिंहदेवगणी (वाग्भटालंकार-टीका), नरसिंह (प्राकृतशब्द-प्रदीपिका), नारायण (गीतगोविन्द : रसिकसर्वस्व-टीका) एवं शंकर (शाकुन्तल की टीका) ने एकस्वर होकर संस्कृत को ही प्राकृत की प्रकृति स्वीकार की है। इनके विपरीत, ग्यारहवीं शती के एक विद्वान् नमिसाधु ने रुद्रट-कृत 'काव्यालंकार' के एक श्लोक (२/१२) की व्याख्या करते हुए कहा है कि 'प्रकृत' शब्द का अर्थ है लोगों का व्याकरण आदि के संस्कारों से रहित स्वाभाविक वचन-व्यापार, उससे उत्पन्न अथवा वही प्राकृत है।' इसके पहले ही नवम शती के संस्कृत-कवि राजशेखर ने प्राकृत को संस्कृत की योनि-विकासस्रोत कहा है। राजशेखर के भी पूर्व अष्टम शती के विद्वान् कवि वाक्पतिराज ने अपने 'गउडवहो' महाकाव्य में प्राकृत को जनभाषा माना है । कवि १. द्र० 'गाथासप्तशती' की भूमिका : ले० भट्ट श्री मथुरानाथ शास्त्री, निर्णय
सागर प्रेस-संस्करण, सन् १९३३ ई०, पृ० ५।
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