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________________ 20 . Vaishali Institute Research Bulletin No, 3 संस्कृत का अपकर्ष : प्राकृत का उत्कर्ष : परन्तु, एक समय ऐसा भी आया, जब प्राकृत के समक्ष संस्कृत विग्याप या मलिन पड़ गयी। मधुर-मधुरतर विषयों में प्राकृत को छोड़ संस्कृत का परिग्रहण जनसाधारण के लिए अत्यन्त ही अरुचिकर हो गया। प्रथित नौ रसों में शृङ्गार सर्वाधिक मधुर है, यह कौन रसज्ञ नहीं जानता ? किन्तु तत्कालीन विद्वानों का यही निश्चय था कि शृङ्गार का सम्यक् परिपाक प्राकृत में ही अधिक सम्भव है। और, शृङ्गार के अधिष्ठाता देवता कामदेव की केलिभूमि प्राकृत ही मानी जाने लगी थी एवं उस समय साभिमान यह घोषणा की जाती थी : अमिअं पाउअकष्वं पढिउं सोउं अ जे ण आणन्ति । कामस्स तत्ततन्ति कुणन्ति ते कहं ण लज्जन्ति ।। (अमृतं प्राकृतकाव्यं पठितुं श्रोतुं च ये न जानन्ति । कामस्य तत्त्वचिन्तां कुर्वन्ति ते कथं न लज्जन्ते ।।) अर्थात्, 'प्राकृत काव्य को जा न पढ़ना ही जानते हैं, न सुनना हो, उन्हें काम की तत्त्वचिन्ता करते लज्जा होनी चाहिए।' यह उद्घोषणा केवल प्राकृत के पण्डितों या पक्षपातियों की ही नहीं थी, अपितु संस्कृत के शीर्षस्थ विद्वानों ने भी उस समय प्राकृत की उत्कण्ठ प्रशंसा की थी। यायावरमूर्धन्य महाकवि राजशेखर को कौन संस्कृतज्ञ नहीं जानता, जिनके 'बालरामायण', 'विद्धशालभंजिका' आदि रूपक-काव्य संस्कृत के रूप को बड़ी सुष्ठुता एवं सुचारुता से उभारते संवारते हैं एवं जिनकी प्रख्यात एवं सशक्त संस्कृतकृति 'काव्यमीमांसा' पण्डित-समाज में साहित्यशास्त्र के असाधारण महत्त्व की स्थापना करती है। संस्कृत-सरस्वती के सौभाग्य-स्तम्भ ऐसे महाकवियों ने भी उस समय प्राकृत के समक्ष संस्कृत को गौण ठहरा दिया और अपने प्रसिद्ध सट्टक 'कर्पूरमंजरी' में उस महाकवि ने साफ शब्दों में प्राणोन्मेषिणी प्राकृत की वकालत की : परुसा सक्कअबन्धा पाउअबन्धोवि होइ सुउमारो। पुरुसमहिलाणं जेत्तिअमिहन्तरं तेत्तियमिमाणम् ।। (कर्पूरमंजरी) (परुषाः संस्कृतबन्धाः प्राकृतबन्धोऽपि भवति सुकुमारः । पुरुषमहिलानां यावदिहान्तरं तावदेतेषाम् li) अर्थात्, संस्कृत-बद्ध काव्य कठोर-कर्कश होते हैं, किन्तु प्राकृतबद्ध काव्य ललित और कोमल, यानी परुषता संस्कृत की और सुकुमारता प्राकृत की मौलिक विशेषता है। दोनों में उतना ही अन्तर है, जितना पुरुष और स्त्री में-एक वज्र कठोर, दूसरी कुसुमकोमल । प्रसिद्ध श्वेताम्बर जनमुनि जयवल्लह (जय वल्लभ) ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "वज्जालग्ग" (व्रज्यालग्न) में प्राकृत की संस्कृतातिशयी श्लाघा करते हुए कहा है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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