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प्राकृत : एक अवलोकन
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इस प्रकार महाराष्ट्री अपाश, मागधी अपभ्रंश, अर्धमागधी अपभ्रंश, शौरसेनी ''पैशाची अपभ्रंश आदि अपभ्रंश के विभिन्न नाम सम्बद्ध प्राकृतों के कारण हमारे सामने अये। इन्हीं अपक्ष'शों ने वर्तमान लोकभाषाओं को जन्म दिया। ये अपभ्रंश 'देशी सदी से पूर्व तक बोल-चाल की भाषा रही होंगी। इसके बाद ही पुरानो हिन्दी आदि लोकभाषाएं अस्तित्व में आयीं । उपर्युक्त अपभ्रंशों के अतिरिक्त अन्य प्रकार के अपभ्रंश भी हैं। उदाहरणार्थ, नागर, ब्राचड, उपनागर तथा बारेन्द्री आदि ।
कुछ वैयाकरण विभिन्न भाषाओं के नाम गिनाते समय संस्कृत और प्राकृत के साथ ही स्वतंत्र भाषा के रूप में अपभ्रंश का नामोल्लेख भी करते हैं । उदाहरणार्थ, दंडी ने जहाँ विभिन्न भाषा साहित्यों का वर्णन किया है, वहाँ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा मिश्र की चर्चा की है । इससे यह अनुमान होता है कि प्रारम्भ में अपभ्रंश अवश्य बोलचाल की भाषा थी, किन्तु, बाद में वह साहित्य की भाषा बन गयी, जिससे दंडी को उसे स्वतन्त्र भाषा स्वीकार करना पड़ा। पर, अन्ततः सभी प्राकृत वैयाकरण, यहाँ तक कि दंडी ने भी अपभ्रंशको महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, अर्धमामधी आदि की तरह साहित्यिक प्राकृत का ही एक भेद मान लिया है । नमिसाधु ने तो काव्यालंकार की टीका में " प्राकृतमेवाभ्रशः " इस कथन के द्वारा अपभ्रंश की स्थिति और अधिक स्पष्ट कर दी है । जब अन्य प्राकृतों का रूप स्थिर हो गया और वे बोल-चाल की भाषा नहीं रह गयीं; उस स्थिति में बोल-चाल भी भाषा के रूप में अपभ्रंश का प्रादुर्भाव हुआ । फिर इसमें रचनाएँ प्रारम्भ हुईं और इसका भी स्थिर साहित्यिक रूप प्रकट हुआ और फिर बाद में यह अपभ्रंश भी प्राकृत का एक भेद हो गया । इस कारण सभी प्राकृत वैयाकरणों ने इसे प्राकृत के अन्तर्गत ही स्वीकार कर लिया ।
महाराष्ट्री की तरह अपभ्रंश भी काव्य की भाषा है । दण्डि के अनुसार यह आभीर, शक, शबर आदि निम्नपात्रों के लिए विहित है । यह कालिदास विरचित विक्रमोवंशीय के चतुर्थीक, पिङ्गल के छन्द: शास्त्र पउम चरिउ, सुपासनाह चरिउ, जसहरचरिउ, सुदंसेन चरिउ आदि अपभ्रंश काव्यों, कुमारपाल चरित तथा आचार्य हेमचन्द द्वारा अपने सिद्धहेम शब्दानुशासन के आठवें अध्याय के अन्तर्गत उद्धृत पदों में तथा अन्य बहुत से ग्रन्थों में पाया जाता है । विविध भेदवाली सभी अपभ्रंश भाषाओं के निदर्शन अभी वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं । कुछ अपभ्रंशों की, जैसे- नागर, व्राचड, उपनागर, वारेन्द्री और शौरसेनी आदि की विशेषताएँ ही मिलती हैं, जिन्हें बहुत से वैयाकरणों ने सामान्य नाम अपभ्रंश अथवा नागर अपभ्रंश के नाम से अभिहित किया है । विविध प्राकृतों के नाम के सम्बन्ध में यह ध्यान रखना चाहिए कि उनके बने हैं, जहाँ वे बोली जाती हैं अथवा उन जातियों के उनका व्यवहार करती थीं ।
नाम या तो उस देश के नाम पर नाम पर बने, जो बोलचाल में
इस प्रकार महाराष्ट्री, शौरसेनी, अर्धमागधी और मागधी, ये भौगोलिक नाम इस भूखण्ड के नाम पर स्वीकृत हुए, जहाँ ये भाषाएँ बोली जाती थीं । महाराष्ट्री, महाराष्ट्र की,
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