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Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 शौरसेनी-प्राकृतों में शौरसेनी ठीक उसी तरह गद्य की भाषा है, जैसे महाराष्ट्री पञ्च की। इसका प्रयोग मुख्यरूप से नायिकाओं तथा उनकी सखियों के समान ही संस्कृत माटकों के गौण पात्रों द्वारा हुआ है। यह राजशेखर की कर्पूरमंजरी में आद्योपान्त गद्य की भाषा है। जो शौरसेनी अश्वघोष के नाटकों तथा अशोक के शिलालेखों में पायी गयी हैं, वह प्राचीन शौरसेनी ( २०० अथवा ३०० ई० पू०) है। अर्वाचीन साहित्यिक शौरसेनी ( १०० अथवा २०० ई० ) भास, कालिदास, शूद्रक तथा अन्य संस्कृत कवियों के नाटकों में पायी जाती है। दिगम्बर जैनों के ग्रन्थ प्रवचनसार, द्रव्य-संग्रह आदि की भाषा जैन शौरसेनी कही गयी है। इसमें साहित्यिक शौरसेनी के साथ ही अर्धमागधी की विशेषताएं भी पायी जाती हैं, जैसे जैन महाराष्ट्री में हम पाते हैं ।
मागधी-इसमें अधिक साहित्य नहीं मिलते हैं। इसका प्राचीनतम निदर्शन अशोक के शिलालेखों में पाया जाता है। [२०० अथवा ३०० ई० पू० ]। इसके बाद यह अश्वघोष, भास, कालिदास के नाटकों तथा शूद्रक के मृच्छकटिक में आता है, जहाँ इसका प्रयोग कंचुकी, भिक्षु, क्षपणक, चेट आदि गौणपात्रों के द्वारा होता है। शकारी, चाण्डाली और शबरी इसकी उपबोलियाँ हैं। ढक्की अथवा टक्की को भी इसकी उपबोली माना
गया है।
पैशाची-इसमें अभी कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है। गुणाढ्य की बृहत् कथा जो अप्राप्य है, अतिप्राचीन परम्परानुसार पैशाची में ही रचित थी। अभी इसके कुछ नमूने वररुचि के प्राकृत-प्रकाश, हेमचन्द्र तथा अन्य आचार्यों के प्राकृत व्याकरण, हेमचन्द्र के ही कुमारपालचरित, काव्यानुशासन तथा मोहराज-पराजय नाटक आदि में मिलते हैं। वाग्भट इसे भूतभाषित तथा दंडी भूतभाषा कहते हैं। उनके अनुसार यह भूतों तथा कुछ अन्य आचार्यों के अनुसार यह पिशाचों तथा राक्षसों की भाषा है । कैकेय, शौरसेन तथा पाञ्चाल पैशाची इसकी उपबोलियाँ हैं ।
चलिका पैशाची--इसके निदर्शन भी हेमचन्द्र के कुमारपालचरित, काव्यानुशासन तथा हम्मीर-मद-मर्दन (नामक नाटक) में पाये जाते हैं। आचार्य हेम तथा लक्ष्मीधर को छोड़कर किसी अन्य भारतीय वैयाकरण ने इसका अलग से उल्लेख भी नहीं किया है। वे इसे पैशाची का ही भेद मानते रहे हैं। यों अलग से उल्लेख करने के बाद भी इन दोनों आचार्यों ने भी इसे पैशाची का एक रूपान्तर ही स्वीकार किया है। वस्तुतः यह पैशाची का ही क्रमशः विकसित रूप है ।
अपभ्रंश-इससे तात्पर्य बोलचाल की भाषा से है, जो किसी न किसी साहित्यिक प्राकृत की अवस्था है। बहुत-सी साहित्यिक प्राकृत भाषाएँ जो प्रारम्भ में जनसमुदाय द्वारा बोलचाल की भाषा के रूप में व्यवहृत हुई और जिनमें मूलरूप से देशी शब्द मिलते गये, वे ही अपभ्रश कहलायीं। ये अपम्रश भी अलग-अलग क्षेत्रों में बोली जाती रहीं, इस कारण अलग-अलग प्रकार की हो गयीं तथा अपने-अपने क्षेत्रों के नाम पर इनका नामकरण भी हो गया।
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