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गरिमाविहीन आज की वैशाली
लेकिन किसी ने नगर के द्वार बन्द करने तक की भी आवश्यकता नहीं समझी। अज्ञातशत्रु ने खुले द्वार वैशाली में प्रवेश किया और नगरी को तहस-नहस कर दिया।'
भारत की सर्वप्रथम गणतंत्र व्यवस्था को सुनियोजित कूटनीति द्वारा नष्ट करने का यह प्रथम प्रयास था, जो बुद्ध-निर्वाण के आसपास लगभग ई० पू० ४८३ में अंग-मगध के शक्तिशाली नरेश अजातशत्रु द्वारा संपन्न किया गया ।
अर्थशास्त्र में भेदनीति का विवेचन इस संदर्भ में कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में संघवृत्त नामक प्रकरण (११।१-५६) में संघ में भेद उत्पन्न करने की नीति का जो विस्तृत विवेचन किया है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है : “जो लोग विजिगीषु के मित्र हैं उन्हें, साम और दान से तथा जो उसके १. जैन परंपरा में भी वैशाली के नाश की कथा आती है। व्याख्याप्रज्ञप्ति
(७।९) में अज्ञातशत्रु-कूणिक और चेटक के बीच होनेवाले महाशिला कटक और रथमुशल संग्रामयुद्ध का उल्लेख है। भगवान् महावीर से प्रश्न किये ज ने पर उन्होंने वज्जी विदेह पुत्त अज्ञातशत्रु-कूणिक की विजय की भविष्यवाणी की थी। एक दूसरी परंपरा निम्न प्रकार है-जब पितृघातक अजातशत्रु-कूणिक राजगद्दी पर बैठा तो उसे अपने सगे जुड़वाँ भाई हल्ल और विहल्ल से भय बना रहता था। राजा श्रेणिक अपनी जीवित अवस्था मे हल्ल और विहल्ल को सेचनक गंधहस्ति और अठारह लड़ीका कीमती हार दे गया था। विहल्ल अपनी अन्तःपुर की रानियों को सेचनक पर बैठाकर गंगास्नान के लिए ले जाता, और वहाँ सेचनक भांति-भाँति की जलक्रीडाओं से रानियों का मनोरंजन करता। यह देखकर कूणिक की रानी पद्मावती को बहुत ईर्ष्या हुई। उसने कूणिक से अनुरोध किया कि वह सेचनक हाथी उसे लाकर दे। कूणिक ने बिहल्ल को बुलाकर सेचनक हाथी लौटाने का आदेश दिया। हाथी के बदले विहल्ल ने आधा राज्य मांगा। इस पर हल्ल और विहल्ल दोनों चंपा छोड़कर अपने नाना वैशाली के गणराजा चेटक के पास जाकर रहने लगे। कूणिक ने चेटक के पास दूत भेजकर हल्ल और विहल्ल को लौटाने को कहा। जब कोई परिणाम न हुआ, तो कूणिक ने काल, मुकाल आदि राजकुमारों के साथ वैशाली पर आक्रमण कर दिया। इधर से काशी-कोशल के १८ गणराजाओं और नौ मल्लकी और नौ लिच्छवी गणों को साथ लेकर चेटक ने शत्रुसेना का सामना किया। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ। चेटक हार गया और गले में लोहे की प्रतिमा लटका कर कुएं में कूद गया। कूणिक ने गधों का हल चलवा कर वैशाली को तहस-नहस कर दिया ! वैशाली-निवासी नेपाल जाकर रहने लगे। (निरयावलि १; आवश्यक चूर्णी, २,१६४-१७४)।
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