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गरिमाविहीन आज की वैशाली
संघशक्ति का महत्त्व अर्थशास्त्र (११।१-२) में कहा है, "यदि किसी राजा को संघ का लाभ मिल जाये तो यह लाभ राजसैन्य और मित्र-लाभ की अपेक्षा कहीं उत्तम है।" संघ में संहति (मेल-मिलाप) होने के कारण उसे शत्रुद्वारा अजेय कहा गया है। संघों को परामर्श दिया गया है कि वे एक राजा की कपटपूर्ण युक्तियों से सदा अपनी रक्षा करते रहें (११।५५) । संघीय प्रमुख के लक्षणों के बारे में देखिये
संघमुख्यश्च संघेषु न्यायवृत्तिहित: प्रियः। . दान्तो युक्तजन स्तिष्ठेत्सर्वचित्तानुवर्तकः ॥ (११।५६)
- संघप्रमुख को न्यायवृत्तिवाला, हितरूप और प्रिय होना चाहिए । उसे अपने आप पर नियंत्रण रखना चाहिए, वह निष्ठावान जनों के साथ रहे और सबके मन का अनुवर्ती हो।
इस संबंध में बौद्धों के दीघनिकाय के अंतर्गत महापरिनिव्वाण सुत्त और दीघनिकाय-अट्ठकथा (भाग २, पृ. ५१६ आदि) में एक रोचक प्रसंग आता है, जिसमें अंग-मगध के अधिपति अजातशत्रु द्वारा, भेद नीति अपनाकर, लिच्छवी संघ को तहसनहस करने का उल्लेख है।
अजातशत्रु अपने राज्य की सीमा को अंग-मगध तक ही सीमित न रखकर उसे गंगा-पार लिच्छवियों की समृद्ध भूमि तक फैलाना चाहता था। लिच्छवियों से अपनी प्रतिरक्षा करने के लिए उसने गंगा-पार मगध में पाटलिपुत्र नगर बसाया था। गंगा-घाट के पास आधा योजन अजातशत्रु का राज्य था और आधा लिच्छवियों का। यहाँ पर्वत को तलहटी में बहुमूल्य माल उतरता था। अजातशत्रु 'आज जाऊँ', 'कल जाऊँ सोचता ही रह जाता और एक रायवाले लिच्छवी जल्दी से पहुँच कर माल ले आते। यह देखकर अजातशत्रु के मन में बहुत कुढ़न पैदा होती, लेकिन वह लाचार था। एक दिन उसने अपने कुशल महामंत्री वर्षकार को भगवान बुद्ध के पास भेजकर इस संबंध में उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। अपने स्वामी का आदेश पाकर वर्षकार राजगृह से चलकर गृध्रकूट पर्वत पर पहुंचा, जहाँ भगवान बुद्ध विहार करते थे। इस प्रसंग पर बुद्ध ने अपने शिष्य आनन्द को संबोधित करते हुए कहा : “जब तक वज्जी लोग निम्नलिखित नष्ट न होनेवाले सात धर्मों का पालन करते हैं, तब तक उनका कोई बाल बांका नहीं कर सकता : (१) किसी बात का निर्णय करने के लिए बैठकें करते हैं, (२) आपस में मिलकर उठतेबैठते हैं और अपना कर्तव्य पालन करते हैं, (३) कोई गैर-कानूनी काम नहीं करते, कानून के खिलाफ नहीं जाते, (४) वृद्धों का आदर-सत्कार करते हैं, गुरुजनों को मानते हैं, (५) कुल-स्त्रियों पर, कुल-कुमारियों पर नजर नहीं डालते, (६) चैत्यस्थानों (देवस्थानों) की पूजा-अर्चना करते हैं, उन्हें दान-मान से सम्मानित करते हैं, (७) अहंतों की धर्मानुसार रक्षा करते हैं।
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