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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 गयी है । स्पष्ट है कि ये लोग वैदिक क्रियाकाण्ड में विश्वास नहीं करते थे, तथा वेद-विरोधी श्रमण सम्प्रदाय का स्थल मगध जनपद इनकी प्रवृत्तियों का केन्द्र बना हुआ था। ये उत्तरी बिहार (चंपारन, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, छपरा) और आधुनिक पूर्वीय उत्तर प्रदेश में फैल गये थे। नौ मल्लकी और नौ लिच्छवियों ने काशी-कोशल के अठारह गणराजाओं के साथ वैशाली के गणराजा चेटक के नेतृत्व में मगधराज अजातशत्रु कुणिक के विरुद्ध युद्ध किया था। इन ३६ गणराजाओं ने पावा नगरी में महावीर-निर्वाण के समाचार पाकर, सर्वत्र दीप-आवलि के प्रकाश द्वारा महावीर-निर्वाण का महोत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाया था। उल्लेखनीय है कि चेटक के अतिरिक्त मल्ल अथवा लिच्छवि' कुल के किसी राजा का उल्लेख जैन परंपरा में नहीं मिलता। बौद्ध परंपरा में सिंह सेनापति का उल्लेख आता है, जिसके नेतृत्व में वैशाली के लिच्छवियों की सेना अजातशत्रु-कूणिक के दांत खट्टे किया करती थी। औपपातिक सूत्र (११-१२) में मल्लकी और लिच्छवियों का उल्लेख है, जो भगवान महावीर के आगमन के समाचार सुनकर अनेक उग्र, उग्रपुत्र, भोग, भोगपुत्र, राजन्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण, शुर, योद्धा आदि के संग उनके दर्शनार्थ प्रयाण करते थे। प्राचीन जैन ग्रन्थों में वज्जि गण के साथ मल्ल, हस्तिपाल और सारस्वत गणों का भी उल्लेख मिलता है। सूत्रकृतांग चूर्णी (पृ. २८) के उल्लेख के अनुसार, मल्ल अपनी एकता के लिए प्रसिद्ध थे। किसी अनाथ मल्ल की मृत्यु हो जाने पर ये उसकी अन्त्येष्टि क्रिया करते तथा अपने गण के दीन-हीन सदस्यों की सहायता में तत्पर रहते। सारस्वत गण की भांति मल्लगण को बलवान गणों में गिना गया है। बृहत्कल्प भाष्य (६।६३०२) में इन दोनों गणों का उल्लेख है। उत्सर्ग मार्ग के अनुसार जिस व्यक्ति को ऋणग्रस्त होने के कारण दासवत्ति स्वीकार करनी पड़ी है, उसे साधु-दीक्षा के अयोग्य बताया है। लेकिन यदि कदाचित् ऐसे व्यक्ति को अनजाने में परदेश में दीक्षा दे दी जाये और संयोगवश साहुकार उसे पहचान कर अपना ऋण उगाहने के लिए उसे जबर्दस्ती पकड़कर अपने घर ले जाना चाहे तो ऐसी दशा में अपवाद मार्ग का अवलम्बन कर आचार्य को सारस्वत अथवा मल्ल आदि बलवान गणों की सहायता लेकर अपने दीक्षित शिष्य की रक्षा में प्रवृत्त होने का विधान है। प्राचीन जैन छेदसूत्रों में जैन साधु के कालगत होने पर उसके शव को वहन कर, उसे स्थंडिल भूमि (जीव-जन्तुरहित शुद्ध भूमि) में परिष्ठापन करने की विधि का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस प्रसंग पर कहा गया है कि यदि मृतक की परिष्ठापना में कोई बाधा उपस्थित हो तो आवश्यकता होने पर मल्ल गण, हस्तिपाल गण और कुंभकार गण की सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए (देखिये व्यवहार-भाष्य ७।४४९-४६२)। १. लिच्छवियों में प्रचलित रोचक रीति-रिवाजों के लिए देखिये-बौद्धों का मूलसर्वास्ति___ वाद, विनयवस्तु, गिलगित मैनुरिक्रप्ट, जिल्द ३, भाग २, श्रीनगर-काश्मीर, १९४२ । २. आगे चलकर मल्ल योद्धा के रूप में। ३. ईसा की ७ वीं शताब्दी में लिखी हुई निशीथचूर्णी (११।३३५४) में मल्ल गण-धर्म और सारस्वतगण-धर्म को कुधर्म कहा गया है। इससे प्रतीत होता है कि प्राचीन परंपराएँ नष्ट होती जा रही थीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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