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________________ जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में मुक्ति प्रो० महाप्रभुलाल गोस्वामी परिपूर्णता या शान्ति जीवन का चरम परम लक्ष्य है । यह वासना के अशेष नाश तनुभाव आसक्ति या ममता के उच्छेद से होती है । " मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् " " यह एक मात्र काय है । शान्ति मुक्ति, कैवल्य, अपवर्ग या निर्वाण कुछ भी हो तत्त्वान्तर नहीं है । शासन और दुःख से त्राण ही एक मात्र अपेक्षित सत्य है । २ मैं कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाकर, किससे क्या प्राप्तकर भवचक्र की दुःख शृङ्खला से परित्राण प्राप्त करूंगा, यह प्रश्नचिह्न मानवसमाज के सम्मुख स्त्रभावतः उपस्थित होता है । भारतीय सभ्यता के आदिमकाल से ही मानव सुखप्राप्ति और दुखोच्छेद के लिए सतत सचेष्ट है । अन्य इच्छा के अधीन न रहकर यदि कुछ इच्छा का विषय है तो वे येही दोनों हैं, क्योंकि सभी विषयो में यह आकांक्षा इदं किमर्थमिदं किमर्थम् अर्थात् यह किसलिए यह किसलिए ? किन्तु सुख और दुखोच्छेद किसलिये यह प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिये इनको अन्येच्छानधीनेच्छाविषय के रूप में प्रतिपादित किया गया है । यह सत्य है कि भिन्न भिन्न प्रस्थानों में विभिन्न दृष्टि से इसका विश्लेषण और इसके साधन का निरूपण प्राप्त होता है । उदाहरणस्वरूप उपनिषद् मूलक कतिपय आचार्यों की दृष्टि में अविद्या का नाश ही मोक्ष हैं और इच्छा अविद्या है " इच्छामात्रमभिधेयं तन्नाशो मोक्ष उच्यते वासना की कृषता या तनुताप्राप्ति ही मोक्ष हँ ‘वासनातानवं ब्रह्मन् मोक्ष इत्यभिधीयते वस्तुतः तनुता नाश का ही उपलक्षण हैं, अन्य उपनिषदों के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि अशेष वासना का परित्याग ही सज्जनों के लिये अपेक्षित है - वही मोक्ष है "मोक्षं स्याद् वासनाक्षयः, अशेषेण परित्यागो वासनायाः उत्तमः मोक्ष इत्युच्यते सद्भिः स एव विमलक्रमः । कतिपय आचार्यों ने अनित्य सांसारिक सुखदुःख एवं सभी विषयों के प्रति ममता के बन्धन के नाश को ही मोक्ष माना है । यह तो सत्य ही है कि किसी न किसी रूप में बन्धनक्षय ही मोक्ष है । वासनासंक्रम यदि बन्धन है तो वासना की निवृत्ति को मोक्ष मानने में किसी भी आचार्य की विप्रतिपत्ति नहीं है । महाभारत की " निवृत्तिर्मोक्ष उच्यते" इसकी व्याख्या सभी आचार्यों ने भिन्न-भिन्न शब्दों में की है । चरक संहिता में निःशेष वेदना की निवृत्ति रूप अवस्था विशेष को मोक्ष माना है । उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगम सूत्र अनुसार समग्र कर्मों का नाश हो मोक्ष है । इस प्रकार वासनाक्षय की मुक्त संज्ञा में आचार्यों की विप्रतिपत्ति नहीं है । पाश्चात्य परिप्रेक्ष्य में ज्ञान की आलोचना करने वाले व्यक्तियों की दृष्टि में एक भावना सुदृढ़ कर गई है कि दार्शनिक ज्ञान-मीमांसा उपनिषत् १. ऋग्वेद सं० ६ म० ५ अ० ४ अ० ५९ सूक्त १२ म० ! २. महोपनिषद् ४।११६ ३. ऐतरेय २।४१ ४. योगे मोक्षे च सर्वासां वेदनानामवर्तनम् । मानो निवृत्तिनिश्शेषयोगो मोक्षप्रवर्तकः ।। चरक सं० ४।१।११६ 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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