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________________ 112 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 ... ५. देश विरत सम्यक्त्व गुण स्थान में विचार की दृष्टि से तो सत्वगुण प्रधान होता है, साथ ही आचार की दृष्टि से भी सत्व का विकास प्रारम्भ हो जाता है । यद्यपि रज और तम पर उसका प्राधान्य स्थापित नहीं हो पाता है। यह तम समन्वित सत्वोन्मुखी रजोगुण की अवस्था है। ६. प्रमत्त संयत गुण स्थान नामक विकास कक्षा में यद्यपि आचार पक्ष और विचार पक्ष दोनों दृष्टि से सत्वगुण की प्रधानता होती है लेकिन फिर भी तम और रज उसकी इस प्रधानता को स्वीकार नहीं करते हुए अपनी शक्ति बढ़ाने की और आचार पक्ष की दृष्टि से सत्व पर अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश करते रहते हैं । ७. अप्रमत्त संयत गुणस्थान में सत्वगुण तमोगुण का या तो पूर्णतया उन्मूलन कर देता है अथवा उसपर पूरा अधिकार जमा लेता है, लेकिन अभी रजोगुण पर उसका पूरा अधिकार नहीं हो पाता है ।। ८. अपूर्व करण नामक गुणस्थान में सत्वगुण रजोगुण पर पूरी तरह काबू पाने का प्रयास करता है। ९. अनावृत्तिकरण नामक नवें गुणस्थान में सत्वगुण रजोगुण को काफी अशक्त बनाकर उस पर बहुत कुछ काबू पा लेता है, लेकिन फिर भी रजोगुण अभी पूर्णतया निःशेष नहीं होता है । रजोगुण की कषाय एवं तृष्णारूपी शक्ति का बहुत कुछ भाग नष्ट हो जाता है, फिर भी राग सूक्ष्म लोभ छद्मवेश में बना रहता है । १०. सूक्ष्म सम्पराय नाम गुणस्थान में सत्वगुण इस छद्मवेशी रजस् को जो सत्व का छद्य स्वरूप धारण किये हुए था पकड़ कर उस पर अपना आधिपत्य स्थापित करता है। ११. उपशान्त मोह नामक गुणस्थान में सत्व का तमस रजस पर पूर्ण अधिकार तो होता है, लेकिन यदि सत्व पूर्व अवस्थाओं में उनका पूर्णतया उन्मूलन नहीं करके मात्र उनका दमन करता हुआ विकास की इस अवस्था को प्राप्त करता है तो वे दमित तमस और रजस यहाँ अवसर पाकर पुनः उस पर हावी हो जाते हैं। १२. क्षीण मोह गुणस्थान विकास की वह कक्षा है, जिसमें साधक तमस् और रजस् का पूर्णतया उन्मूलन करके आता है। यह विशुद्ध रूप से सत्वगुण की अवस्था होती है । यहाँ आकर सत्व का रजस और तमस से चलने वाला संघर्ष समाप्त हो जाता है। साधक को अब सत्वरूपी उस साधन की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती है, अतः वह ठीक उसी प्रकार सत्वगुण का भी परित्याग कर देता है, जैसे कांटे के द्वारा काँटा निकाल लेने पर उस काँटा निकालने वाले कांटे का भी परित्याग कर दिया जाता है । १३. सयोगी केवली गुणस्थान---यह आत्मतत्व की दृष्टि से त्रिगुणातीत अवस्था है । यद्यपि शरीर के रूप में इन तीनों का अस्तित्व बना रहता है। लेकिन इस अवस्था में त्रिगुणात्मक शरीर में रहते हुए भी आत्मा उनसे प्रभावित नहीं होता है। वस्तुतः तब यह त्रिगुण भी संघर्ष की दशा में न रहकर विभाव से स्वभाव बन जाते हैं। साधना सिद्धि में परिणत हो जाती है। साधन स्वभाव बन जाता है । डा० राधाकृष्णन के शब्दों में "तब सत्व उन्नयन के द्वारा चेतना का प्रकाश, ज्योति बन जाता है, रजस् तप बन जाता है और तमस् प्रशान्तता या शान्ति बन जाता है।" १. भगवद्गीता (हिन्दी राधाकृष्णन) पृ० ३१० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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