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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3.
काल की देन हैं, संहिता भाग में मोक्ष विषयिणी चर्चा उपलब्ध नहीं हैं ; किन्तु यह भावना कल्पना के प्राज्य-प्रौढ़ प्रताप की देन है वास्तविकता इससे कहीं दूर है ऋग्वेदसंहिता और यजु० सं० के मन्त्रों में मुक्त को चर्चा जिसे दुःख की निवृत्ति के रूप में प्रतिपादित किया है 'त्रयम्बक' यजामहे' इत्यादि मन्त्र के अन्त में उपलब्ध ‘मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्' यह वाक्य मुक्ति का बोधक है; इतना ही नहीं जोव के लिये मुक्ति एकमात्र काम्य है; यह इस वाक्य से स्पष्ट अवगत हो रहा है, किन्तु इतना सत्य है कि त्रयीवार्ता दण्डनीति और आन्वीक्षिकी के आधार पर तत्त्वज्ञान और उनके प्रयोजनों में भेद ही उस शास्त्र के विशिष्ट प्रयोजन हो उस विद्या के अधिकारी व्यक्ति के काम्य होते हैं, त्रयी का स्वर्ग प्राप्ति ही फल है, अग्निहोत्रादिसाधन-समूह का परिज्ञान तत्त्वज्ञान है वार्ताशास्त्र वार्ता के उपयोगी भूमि जलादि का परिज्ञान तत्त्वज्ञान है अर्थात् ऊर्वर भूमि और बालू आदि से अनुपहत भूमि का ज्ञान ही तत्त्वज्ञान है और शस्य, तण, ईन्धन आदि की प्राप्ति हो निःश्रेयस है क्योंकि प्रदर्शित तत्त्वज्ञान से ही शस्य आदि फल की प्राप्ति होती है नीति में साम, दाम, दण्ड, विभेद रूप चार उपायों का यथा समय यथाशक्ति विनियोग तत्त्वज्ञान और पृथ्वीनय राजा-प्रजा का अनुरूप निःश्रेयस हैं । आत्मविद्या में आत्मज्ञान तत्त्वज्ञान और अपवर्गलाभ निःश्रेयस है।
मृत्यु से परे और दुख की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अन्य इच्छा के अनधीन इच्छा का विषय हो मनष्य के लिये अभिप्रेत है और ऐसा विषय सुख या दुखाभाव हो सकता है। अतः सुख या दुखाभाव साधन ही जिज्ञास्य है और यह जिज्ञास्य होने के कारण ही शास्त्र प्रतिपाद्य है। इसे ही सुख या दुःखाभाव रूप में आचार्यों ने स्वीकार किया है । वैदिक दृष्टि से इन्द्र, वरुण, अग्नि, आदित्य आदि देवताओं के साथ सायुज्य, सालोक्य, सारूप्य को ही मुक्ति माना है। किन्तु विवेचन क्रम में आत्मा को जगत् की सृष्टि के कारण रूप में स्वीकार किया गया और आत्म-प्राप्ति को भी एक मात्र मुक्ति के रूप में स्वीकार किया गया । परवर्ती आचार्यों ने भी मुक्ति के विवेचन में इसी को मुख्यतम स्थान दिया गया है जो आत्मज्ञान सम्पन्न हो उसे मृत्युभय नहीं रहता। तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी विवेचन क्रम में कहा गया है कि आत्मविज्ञानी कर्म से युक्त नहीं होता है । आत्मलाभ से अतिरिक्त कुछ भी जगत् में ज्ञातव्य नहीं है । शतपथ ब्राह्मण में भी आत्मज्ञानी को ही जगत् से मुक्ति प्रतिपादित की गई हैं । वस्तुतः विवेचन करने से यह अवगति हो रही है कि सायुज्य आदि प्रदर्शित युक्तियाँ भी आत्मप्राप्ति से व्यतिरिक्त नहीं हैं । क्योंकि आत्म से व्यतिरिक्त वस्तु ही नहीं है । शतपथ ब्राह्मण में तो स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि वह पुरुष ही मेरी आत्मा है और मृत्यु के बाद मैं उस में प्रवेश करूंगा ।४ यह प्रवेश का अर्थ स्वभिन्न आत्मा में प्रवेश नहीं वरन् ब्रह्म के ज्ञान से जोब ब्रह्म हा हो जाता है-यही अर्थ विवक्षित है। ब्रीकात्म्यानुभूति ही वैदिक ऋषियों के द्वारा प्रतिपादित है। अतः प्रवेश का अर्थ
५. ७।५।४।५९।१२ ऋग्०, शुक्ल यजु० सं० । ६. अर्थववेद १०८।४४ ७. श० ब्राह्म० १०१५।४।१५ ८. श० ब्राह्म० १० ५.३
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