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________________ आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम-गुणस्थान सिद्धांत : एक तुलनात्मक अध्ययय 167 सदाचरण के कारण उन्हें स्वर्गादि सुख क्यों न मिलता हो, फिर भी वे निर्वाण-मार्ग से तो विमुख ही हैं। यह वर्ग जैन विचारणा के अनुसार सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान के निकटवर्ती मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीवों का है, दूसरे शब्दों में यह मार्गानुसारी अवस्था है । बौद्ध विचारणा की दृष्टि से यह अवस्था कल्याण पृथक् जन भूमि या धर्मानुसारी भूमि से तुलनीय है। ३. तीसरा वर्ग वह है, जहाँ श्रद्धा अथवा बुद्धि राजस हो। श्रद्धा अथवा बुद्धि के राजस होने का तात्पर्य उसकी चंचलता या अस्थिरता है। हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि श्रद्धा या बुद्धि के अस्थिर या संशयशील अवस्था में आचरण सम्भव नहीं होता है । अस्थिर बुद्धि किसी भी स्थायित्वपूर्ण आचरण का निर्णय नहीं ले पाता, अतः यह भूमिका जीवन दृष्टि और आचरण दोनों ही की अपेक्षा से राजस होती है। गीता में अर्जुन इसी धर्मसंमूढचेतना की भूमिका को लेकर प्रस्तुत होता है। गीता के अनुसार यह संशयात्मक एवं अस्थिरता को भूमिका नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से अविकास को अवस्था है। गीता के अनुसार अज्ञानी एवं अश्रद्धालु (मिथ्या दृष्टि) जिस प्रकार विनाश को प्राप्त होते हैं, वैसे ही संशयशील आत्मा भी विनाश को प्राप्त होता है। यही नहीं संशयशील आत्मा की अवस्था तो उनसे अधिक बुरी बनती है, क्योंकि यह भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के सुखों से वंचित रहता है जबकि मिथ्या दृष्टि प्राणी कम से कम भौतिक सुखों का तो उपभोग कर ही लेता है। यह अवस्था जैन विचारणा के मिश्र गुणस्थान से मिलती हुई है क्योंकि मिश्र गुणस्थान भी यथार्थ और अयथार्थ दृष्टि के मध्य अनिश्चय की अवस्था है । यद्यपि जैनदर्शन के अनुसार इस मिश्र अवस्था में मृत्यु नहीं होती है, लेकिन गीता के अनुसार रजोगुण की भूमिका में मृत्यु होने पर प्राणी आसक्तिप्रधान योनियों को प्राप्त करता हुआ (रजसि प्रलयं गत्वा कर्म संगिषु जायते) मध्यलोक में जन्म-मरण पाता रहता है (मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः १४।१८)। ४. चतुर्थ भूमिका वह है, जिसमें दृष्टिकोण सात्विक अर्थात् यथार्थ होता है, लेकिन आचरण तामस एवं राजस होता है। गीता में इस मूमिका का चित्रण छठे एवं नवें अध्याय में मिलता है। छठे अध्याय में "अयतिः श्रद्धयोपेतो" कहकर इस वर्ग का निर्देश किया गया है। नवें अध्याय में जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन निम्नतम आचारवाले (सुदुराचरी) व्यक्तियों को भी जो अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं, साधु (सात्विक प्रकृति वाला) ही माना जाना चाहिए क्योंकि उनका दृष्टिकोण सम्यकपेण व्यवस्थित हो चुका है । गीता में वणित नैतिक विकास क्रम की यह अवस्था जैन निचारणा के अविरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थान १. कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः । यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ गीता २७ । २. नेहाभिक्रमनाशोस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ गीता २।४० । ३. अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः । __ अप्राप्य योगसंसिद्धि कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ गीता ६।३७ । ४. अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यमाक् । साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।। गीता ९।३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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