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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
माना जाना चाहिए" इस विचारणा की पुष्टि की गई है । अतः नैतिक विकास की कक्षाओं की विवेचना करते समय प्रथम हमें जीवन दृष्टि (श्रद्धा + ज्ञान) का सत्व, रज एवं तमोगुण 'आधार पर त्रिविध वर्गीकरण करना होगा और तत्पश्चात् उस सत्वप्रधान जीवन दृष्टि का आचरण की दृष्टि से त्रिविध विवेचन करना होगा । यद्यपि प्रत्येक गुण में भी तरतमता की दृष्ट से अनेक अवान्तर वर्ग हो सकते हैं, लेकिन वर्तमान सन्दर्भ में अधिक भेद-प्रभेदों की ओर जाना इष्ट नहीं होगा ।
१. प्रथम वर्ग वह है जहां श्रद्धा एवं आचरण दोनों ही तामस हैं । जीवन-दृष्टि अशुद्ध है । गीता के अनुसार इस वर्ग में रहने वाला प्राणी परमात्मा की उपलब्धि में असमर्थं होता है, क्योंकि उसके जीवन की दिशा ही पूरी तरह असम्यक् है । गीता के अनुसार इस अविकास - दशा रूप प्रथम कक्षा में प्राणी की ज्ञान-शक्ति माया के द्वारा कुंठित रहती है, उसकी वृत्तियाँ आसुरी और आचरण पापमय होता है । यह अवस्था जैन विचारणा के मिथ्यात्व गुणस्थान एवं बौद्ध विचारणा की अंध पृथक जन-भूमि के समान ही है गीता के अनुसार इस तमोगुण भूमिका में मृत्यु होने पर प्राणी मूढ़ योनियों में जन्म लेता है ( प्रलीनस्वमसि मूढयोनिषु जायते १४।१५), अधोगति को प्राप्त करता है ।
२. दूसरा वर्ग वह होगा, जहाँ श्रद्धा अथवा जीवन-दृष्टि तो तामस हो लेकिन आचरण सात्विक हो । इस वर्ग के अन्दर गीता में वर्णित वे भक्त होते हैं, जो आर्त भाव एवं किसी कामना को लेकर ( अर्थार्थी ) भक्ति (धर्माचरण) करते हैं । गीताकार ने इनको सुकृति (सदाचारी) एवं उदार कहा है । लेकिन साथ ही यह भी स्वीकार किया कि ऐसे व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं और संसार में ही गीता का स्पष्ट निर्देश है कि कामनाओं के कारण जिनका ज्ञान दृष्टि पुरुष के समान आचरण करते हुए भी अस्थायी फल को प्राप्त सम्पन्न व्यक्ति उसी आचरण के फलस्वरूप परमात्मवरूप की प्राप्त करते हैं । इसका तात्पर्य यही है कि गीता के अनुसार भी ऐसे व्यक्तियों की क्रियाएं जिनकी दृष्टि या श्रद्धा यथार्थं नहीं है, बन्धन (संसार) का कारण ही होती है, मुक्ति का नहीं" । अतः पारमार्थिक दृष्टि से विचार करके हमें उन्हें मिथ्यादृष्टि ही कहना होगा । चाहे उनके
जन्म मरण करते रहते हैं । अपहृत हो गया, वे सम्यक् होते हैं, जबकि यथार्थं दृष्टि प्राप्ति रूप अनन्त फल को
१. अपि चेत्सुदुराचारो मजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ गीता ९।३० ।
२. न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना
३. गीता ७।१६, ७।१८ (इसमें 'उदार' शब्द का प्रयोग अपेक्षाकृत है) ।
४. द्रष्टव्य — गीता शांकरभाष्य ७ २०, ७।२६ ॥
५. कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
भोगैश्वर्यं गति तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ गीता २०४४ ।
क्रियाविशेषबहुलां
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां
आसुरं भावमाश्रिताः || गीता ७।१५ ।
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प्रति ॥ गीता २।४३ |
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