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यत्मिक साधना का विकासक्रम- गुणस्थान सिद्धांत : एक तुलनात्मक अध्ययन 105
को अवस्था है । यह दोनों ही अविकास की सूचक है । जब रजस् और तमस् को दबाकर सत्व प्रधान होता है तो जीवन में ज्ञान का प्रकाश आलोकित होता है, आचरण जीवन की यथार्थं दिशा में होता है, यह विकास की भूमिका है । जब सत्त्व के ज्ञान प्रकाश में आत्मा अपने यथार्थं स्वरूप को पहचान लेता है तो यह गुणातीत हो इन गुणों का द्रष्टा मात्र रह जाता है, इनकी प्रवृत्तियों में उसकी ओर से मिलने वाला सहयोग बन्द हो जाता है । त्रिगुण भी संघर्ष के लिए मिलने वाले सहयोग के अभाव में संघर्ष से विरत हो साम्यावस्था में स्थित हो जाते हैं । तब सत्व ज्ञान ज्योति बन जाता है रजस् स्वस्वरूप में रमन बन जाता है और तमस् शान्ति का प्रतीक होता है । यह त्रिगुणातीत दशा ही आध्यात्मिक पूर्णता की अवस्था है । सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों के आधार पर ही गीता में व्यक्तित्व, श्रद्धा, ज्ञान, बुद्धि, कर्म कर्ता आदि का त्रिविध वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है । प्रथमतः प्रश्न यह होता है कि हम गीता में इस त्रिगुणात्मकता की धारणा को ही नैतिक विकास क्रम का आधार क्यों माने ?
इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जैन दर्शन में बन्धन का प्रमुख कारण मोह कम है और उसके दो भेद दर्शन-मोह और चरित्र - मोह की तारतम्यता के आधार पर नैतिक विकास की कक्षाओं की विवेचना की जाती है, उसी प्रकार गीता के आचार-दर्शन में बन्धन का मूल कारण त्रिगुण है' । गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि सत्व, रज और तम इन गुणों से प्रत्युत्पन्न त्रिगुणात्मक भावों से मोहित होकर जगत् के जीव उस परम अव्यय परमात्मस्वरूप को नहीं जान पाते हैं । अतः गीता की दृष्टि से नैतिक एवं आध्यात्मिक विकासक्रम की चर्चा करते समय इन गुणों को आधारभूत मानना होता है । यद्यपि सभी गुण बन्धक है, फिर भी उनमें तरतमता है । जहाँ तमोगुण विकास में बाधक होता है, वहाँ सत्व गुण उसमें ठीक उसी प्रकार सहायक होता है, जिस प्रकार जैन दृष्टि में सम्यक्त्व मोह विकास में सहायक होता है । यदि हम नैतिक विकास की दृष्टि से इस सिद्धान्त की चर्चा प्रस्तुत करना चाहते हैं, तो हमें यह जान लेना चाहिए कि जिन नैतिक विवेचनाओं में मौतिक दृष्टिकोण के स्थान पर आध्यात्मिक दृष्टिकोण को स्वीकृत किया जाता है, उनमें नैतिक मूल्यांकन की दृष्टि से व्यक्ति का आचरण प्राथमिक तथ्य न होकर उसकी जीवन-दृष्टि प्राथमिक तथ्य होती है; आचारण का स्थान द्वितीयक होता है । उनमें यथार्थ दृष्टिकोण के अभाव में किया गया आचारण अधिक मूल्यवान् नहीं होता । उसका जो कुछ भी मूल्य होता है, वह उसके यथार्थ दृष्टि की ओर उन्मुख होने से ही होता है अतः हम गीता की दृष्टि से नैतिक विकास की श्रेणियों की चर्चा करते समय यथार्थं जीवन दृष्टि, जो श्रद्धा, ज्ञान एवं बुद्धि से प्रत्युत्पन्न है - को जैन और बौद्ध परम्पराओं के समान ही प्राथमिक और आचरण को द्वितीयक मानकर ही चर्चा प्रस्तुत करेंगे । स्वयं गीता में भी यह कहा गया है कि "मेरे प्रति अनन्य श्रद्धा से युक्त दुराचारी भी साधु ही
१. सत्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ गीता १४/५ ।
२. त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति भामेभ्यः परमव्ययम् ।। गीता ७।१३ ।
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