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________________ VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 (९) अचला- - संकल्पशून्यता एवं विषयरहित अनिमित्त बिहारी समाधि की उपलब्धि से यह भूमि अचल कहलाती है। विषयों के अभाव से चित्त संकल्पशून्य होता है और संकल्पशून्य होने से चित्त अविचल होता है । क्योंकि विचार एवं विषय हो चित्त की चंचलता के कारण होते हैं, जबकि इस अवस्था में उनका पूर्णतया अभाव होता है । चित्त के संकल्पशून्य होने से इस अवस्था में तत्व का साक्षात्कार हो जाता है । यह भूमि तथा अग्रिम साधुमती और मेधा भूमियां जैन विचारणा के सयोगी केवली नामक तेरहवें गुणस्थान के समकक्ष मानी जा सकती है । 104 (१०) साधुमती - इस भूमि में कोधिसत्व का हृदय सभी नाओं से परिपूर्ण होता है । इस भूमि का लक्षण है, सत्वपाक को परिपुष्ट करना । इस भूमि में समाधि की विशुद्धता एवं अनुभव करने वाली बुद्धि) की प्रधानता होती है । इस अवस्था में बोधिसत्व में दूसरे प्राणियों के मनोगत भावों को जानने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है । प्राणिओं के प्रति शुभ भावअर्थात् प्राणियों के बोधिबीज प्रतिसंविन्मति (विश्लेषणात्मक धर्मं मेघा - जैसे मेघ आकाश को व्याप्त करता है, उसी प्रकार इस भूमि में समाधि प्राप्त कर रत्नजड़ित समवशरण रचना के इस भूमि में बोधिसत्व दिव्य शरीर को यह भूमि जैनविचारणा के तीर्थंकर के धर्माकाश को व्याप्त कर लेती है । दैवीय कमल पर दिखाई देते हैं । समान प्रतीत होती है । नैतिक विकास की दृष्टि से गीता की त्रिगुणात्मक धारणा और जैन विचारणा के गुणस्थान सिद्धान्त से उसकी तुलना यद्यपि गीता में नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास क्रम का उतना विस्तृत विवेचन नहीं मिलता जितना जैन विचारणा में पाया जाता है । फिर भी वहाँ उसकी एक मोटी रूप-रेखा अवश्य मिल जाती है । गीता में इस वर्गीकरण का प्रमुख आधार त्रिगुणात्मकता की धारणा है । डा० राधाकृष्णन अपनी भगवद्गीता की टीका में लिखते हैं "आत्मा का विकास तीन सोपानो में होता है । यह निष्क्रिय जड़ता और अज्ञान ( तमोगुण प्रधान अवस्था) से भौतिक सुखों के लिए संघर्ष (रजोगुणात्मक प्रवृत्ति) के द्वारा ऊपर उठती हुई ज्ञान और आनन्द की ओर बढ़ती है"'" । गीता के अनुसार आत्मा तमोगुण से रजोगुण और सत्वगुण की ओर बढ़ता हुआ अन्त में गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। गीता इन गुणों के पारस्परिक संघर्ष की दशा को प्रस्तुत करती है। जिसके आधार पर नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास को समझा जा सकता है । जब रजस् और सत्व को दबाकर तमोगुण प्रधान होता है तो जीवन में निष्क्रियता एवं जड़ता बढ़ती है । प्राणी परिवेश के सम्मुख झुकता रहता है, यह अविकास की अवस्था है । जब सत्व और तम को दबाकर रजस् प्रधान होता है तो जीवन में अनिश्चयता तृष्णा और लालसा बढ़ती है । इसमें अंध एवं आवेशपूर्ण प्रवृत्तियों का बाहुल्य होता है, यह अनिश्चय १. भगवद्गीता - डा० राधाकृष्णन - पृ० ३१३ । २. रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत । रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥ - - गीता १४।१० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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