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________________ 108 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 से मिलती है। जैन विचारणा के समान गीता भी यह स्वीकार करती है कि ऐसा व्यक्ति जिसका दृष्टिकोण सम्यक् हो गया है, वह चाहे वर्तमान में दुराचरी ही क्यों न हो, फिर मो वह शीघ्र ही सदाचारी हो शाश्वत शान्ति (मुक्ति) को प्राप्त करता है' क्योंकि वह साधना की यथार्थं दिशा की ओर मुड़ गया है । बौद्ध विचारणा में इसे श्रोतापन्न (निर्वाण मार्ग के प्रवाहित ) भूमि कहकर प्रकट किया गया है । जैन बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन समवेत रूप से यह स्वीकार करते हैं कि ऐसा साधक मुक्ति अवश्य प्राप्त कर लेता है ? | ५. गीता के अनुसार नैतिक एवं आध्यात्मिक सिकास की पाँचवीं भूमिका की कल्पना यह हो सकती है कि जिसमें श्रद्धा एवं बुद्धि तो सात्त्विक हो, लेकिस आचरण में रजोगुण सत्वोन्मुख हो । यहाँ रजोगुण के कारण चित्त वृत्ति में चंचलता होती है तथा पूर्वावस्था के तमोगुण के संस्कार भी पूर्णतः विलुप्त नहीं हो पाते हैं । तमोगुण एवं रजोगुण की तरतमता के आधार पर इस भूमिका के अनेक उपविभाग किए जा सकते हैं । जैन विचारणा में इस प्रकार के विभाग किए गए हैं, लेकिन गीता से इतनी गहन विवेचना उपलब्ध नहीं है । फिर भी इस भूमिका का चित्रण हमें गीता के षष्टम् अध्याय में मिल जाता है । वहाँ पर अर्जुन शंका उपस्थित करते हैं कि हे कृष्ण, जो व्यक्ति श्रद्धायुक्त (सम्यक् दृष्टि) होते हुए मी ( रजोगुण के कारण) चंचल मन वाला होने से योग की पूर्णता को प्राप्त नहीं होता, उसकी क्या गति होती है ? क्या वह ब्रह्म (निर्माण) की ओर जाने वाले मार्ग से पूर्णतया भ्रष्ट तो नहीं हो जाता ? गीताकार इस शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए कहता है कि चित्त की चंचलता के कारण साधना के परम लक्ष्य से पतित हुआ ऐसा साधक भी सम्यक् श्रद्धा से युक्त एवं सम्यक् आचरण में प्रयत्नशील होने से अपने शुभ कर्मों के कारण ब्रह्म-प्राप्ति की यथार्थं दिशा में ही रहता है । अनेक शुभ योनियों में जन्म लेता हुआ पूर्वं संस्कारों से साधना के योग्य अवसरो को उपलब्ध कर जन्मान्तर में पापों से शुद्ध होकर परमगति (निर्वाण ) को प्राप्त कर लेता है । जैन विचारणा से तुलना करने पर यह अवस्था ५ वें देश विरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थान प्रारम्भ होकर ११ व उपशान्त मोह गुणस्थान तक जाती है । ५ वें एवं छठें गुणस्थान तक श्रद्धा के सात्विक होते हुए भी आचरण में सत्वोन्मुख रजोगुण तमोगुण से समन्वित होता है । उसमें प्रथम की अपेक्षा दूसरी अवस्था में रजोगुण की सत्वोन्मुखता बढ़ती है, वही सत्व की प्रबलता से उसकी मात्रा क्रमशः कम होते हुए समाप्त हो जाती है । वस्तुतः साधना की इस कक्षा में व्यक्ति सम्यक् जीवन-दृष्टि से सम्पन्न होकर आचरण को भी वैसा ही बनाने का प्रयास करता है, लेकिन तमोगुण और रजोगुण के पूर्व संस्कार बाधा उपस्थित करते हैं । फिर भी यथार्थ बोध के कारण व्यक्ति में आचरण की सम्यक् दिशा के लिए अनवरत प्रयास का प्रस्फुटन होता है, और जिसके फलस्वरूप तमोगुण और रजोगुण धीरे-धीरे १. क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति । कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ।। गीता ९।३१ । २. प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्ध किल्विष । अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥ गीता ६।४५ । ३. गीता ६।३७, ३८ । ४. गीता ६।४०, ४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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