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________________ आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम-गुणस्थान सिद्धान्तः एक तुलनात्मक अध्ययन 101 सकृदागामी भूमि के अन्तिम चरण में साधक पूर्ण रूप से कामराम ( वासनाएँ ) और प्रतिघ ( द्वेष ) को समाप्त कर देता है और अनागामी भूमि की दिशा में आगे बढ़ जाता है। सकृदागामी भूमि की तुलना जैन विचारणा के आठवें गुणस्थान से की जा सकती है । दोनों दृष्टिकोणों के अनुसार साधक इस अवस्था में बन्धन के मूलकारण राग, द्वेष एवं मोह का प्रहाण करता है और विकास की अग्रिम अवस्था, जिसे जैन विचारणा क्षीणमोह गुणस्थान और बौद्ध विचारणा अनागामी भूमि कहती है, में प्रविष्ट हो जाता है। जैन विचारणा के अनुसार जो साधक इन गुणस्थानों की साधनावस्था में ही आयुष्य पूर्ण कर लेता है, वह अधिक से अधिक तीसरे जन्म में निर्वाण को प्राप्त कर लेता है, जबकि बौद्ध विचारणा के अनुसार सकृदागामी भूमि के साधना काल में मृत्यु प्राप्त करने वाला साधक एक बार ही पुनः संसार में जन्म ग्रहण करता है। दोनों विचारणाओं का इस सन्दर्भ में मतैक्य है कि जो साधक इस साधना को पूर्ण कर लेता है, वह अनागामी या क्षीण मोह गुणस्थान की भूमिका को प्राप्त कर उसी जन्म में अहंत् पद एवं निर्वाण की प्राप्ति कर लेता है। (३) अनागामी भूमि-जब साधक प्रथम श्रोतापन्न भूमिका में सत्कार्य दृष्टि, विचिकित्सा और शीलव्रत परामर्श इन तीनों संयोजनों तथा सकृदागामी में कामराग और प्रतिध इन दो संयोजनों को इस प्रकार पाँच संयोजनों को नष्ट कर देता है, वह अनागामी भूमि को प्राप्त हो जाता है। इस अवस्था को प्राप्त साधक यदि विकास की दिशा में आगे बढ़ता है तो मृत्यु के प्राप्त होने पर ब्रह्म लोक में जन्म लेकर वहीं से सीधे निर्वाण की प्राप्ति कर लेता है । वैसे साधनात्मक दिशा में आगे बढ़ने वाले साधक का कार्य इस अवस्था में यह होता है कि वह शेष पांच संयोजन १. रूप राग, २. अरूप राग, ३. मान, ४. औद्धत्य और ५. अविद्या के नाश का प्रयास करे । जब साधक इन पाँचों संयोजनों का नाश कर देता है, तब वह विकास की अग्रिम भूमिका अहंतावस्था को प्राप्त कर लेता है। जो साधक इस अग्रिम भूमिका को प्राप्त करने के पूर्व ही साधना काल में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, वे ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहाँ शेष पाँच संयोजनों के नष्ट हो जाने पर निर्वाण का लाभ प्राप्त कर लेते हैं। उन्हें पुनः इस लोक में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती है। अनागामी भूमि की तुलना जैन मत के क्षीणमोह गुणस्थान से की जा सकती है, लेकिन यह तुलना अनागामी भूमि के उस अन्तिम चरण में ही समुचित होती है, जब अनागामी भूमि का साधक दसों संयोजनों के नष्ट हो जाने पर अग्रिम अहंत भूमिका में प्रस्थान करने की तैयारी में होता है। साधारण रूप से आठवें से बारहवें गुणस्थान तक की सभी अवस्थाएं इस भूमिका के अन्तर्गत आती हैं। (४) अर्हतावस्था-जब साधक भिक्षु उपरोक्त दसों संयोजनों या बन्धनों को तोड़ देता है, तब वह अर्हतावस्था को प्राप्त कर लेता है। सम्पूर्ण भावों के समाप्त हो जाने के कारण वह कृतकार्य हो जाता है, अर्थात् नैतिक विकास की दिशा में उसे कुछ करणीय नहीं रहता, यथापि वह संघ की सेवा के लिए कियाएँ करता रहता है' । समस्त बन्धनों या संयोजनों के नष्ट हो जाने के कारण उसके समस्त क्लेशों या दुःखों का प्रहाण हो जाता है। वस्तुतः यह जीवनमुक्ति की अवस्था है। जैन विचारणा में इस अहंतावस्था की तुलना सयोगी केवली गुण स्थान से की जा सकती है। दोनों विचारणाएँ इस भूमिका के सम्बन्ध में काफी निकट हैं। १. देखिये - विनयपिटक चूलवग्ग खंधक ४।४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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