________________
102 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
(ब) महायान सम्प्रदाय में दसमभूमिशास्त्र के अनुसार आध्यात्मिक विकास की निम्न दस भूमियाँ ( अवस्थाएँ ) मानी गई हैं। (१) प्रमुदिता, (२) विमला, (३) प्रभाकरी (४) अचिष्मती, (५) सुदुर्जया, (६) अभिमुक्ति, (७) दूरंगमा, (८) अचला, (९) साधुमती
और (१०) धर्म मेधा । हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि हीनयान से महायान की ओर संक्रमण काल में लिखे गये महावस्तु नामक ग्रन्थ में (१) दुरारोहा, (२) वर्द्धमान, (३) पुष्पमण्डिता, (४) रूचिरा, (५) चित्तविस्तार, (६) रूपमती, (७) दुर्जया, (८) जन्मनिदेश, (९) यौवराज और (१०) अभिषेक नामक जिन दस भूमियों का विवेचन मिलता है, वे महायान की पूर्वोक्त दस भूमियों से भिन्न हैं । यद्यपि महायान का दस भूमियों का सिद्धान्त इसी मूलभूत धारणा के आधार पर विकसित हुआ है तथापि महायान ग्रन्थों में कहीं दस से अधिक भूमियों का विवेचन भी मिलता है । असंग के महायान सूत्रालंकार और लंकावतार सूत्र में इन भूमियों की संख्या ११ हो जाती है। महायान सूत्रालंकार में प्रथम भूमि को अधिसुक्तिचर्या भूमि कहा गया है
ओर अन्तिम बुद्धभूमि का भूमियों की संख्या में परिगणन नहीं किया गया है। इसी प्रकार लंकावतार सूत्र में धर्म मेधा और तथागत भूमियों (बुद्ध भूमि) को अलग-अलग माना गया है।
(१) अधिमुक्त चर्या भूमि-वैसे अन्य ग्रन्थों में प्रमुदिता को प्रथम भूमि माना गया है लेकिन असंग प्रथम अधिमुक्तचर्या भूमि और तत्पश्चात् प्रमुदिता भूमि की विवेचना करते हैं। अधिमुक्तचर्या भूमि में साधक को पुद्गल नैरात्म्य और धर्मनैरात्म्य का अभिसमय (यथार्थज्ञान) होता है। यह दृष्टि विशुद्धि की अवस्था है। इस भूमि की तुलना जैनविचारणा में चतुर्थ अविरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थान से की जा सकती है। इसे बोधिप्रणिधिचित की अवस्था कहा जा सकता है । बोधिसत्व इस भूमि में दानपारमिता का अभ्यास करता है।
(२) प्रमुदिता-इसमें अधिशील शिक्षा होती है । यह शीलविशुद्धि सम्बन्धी प्रयासों मी अवस्था है। इस भूमि में बोधिसत्व लोकमंगल की साधनभूत बोधि को पाकर प्रमोद का अनुभव करता है । इसे बोधिप्रस्थान चित्त की अवस्था कहा जा सकता है। बोधिप्रणिधिचित्त मार्ग का ज्ञान है, लेकिन बोधिप्रस्थानचित्त मार्ग में गमन की प्रक्रिया है। जैनविचारणा में इस भूमि की तुलना पंचम देशविरत एवं षष्ठ सर्वविरत नामक गुणस्थानों से की जा सकती है । इस भूमि का लक्षण है कर्मों की अविप्रणाशव्यवस्था अर्थात् यह ज्ञान की प्रत्येक कर्म का भोग अनिवार्य है, कर्म अपना फल दिये बिना नष्ट नहीं होता। बोधिसत्व इस भूमि से शील पारमिता का अभ्यास करता है । वह अपने शील को विशुद्ध करता है, सूक्ष्म से सूक्ष्म अपराध भी नहीं करता है। पूर्णशील विशुद्धि की अवस्था में वह अग्रिम विमला विहार भूमि में प्रविष्ट हो जाता है।
(३) विमला-इस अवस्था में बोधिसत्व (साधक) अनैतिक आचरण से पूर्णतया मुक्त होता है । दुःशीलता का मल पूर्णतया नष्ट हो जाता है। इसलिए इसे विमला भूमि कहते हैं । यह आचरण की पूर्ण शुद्धि की अवस्था है। इस भूमि में बोधिसत्व शान्तिपारमिता का अभ्यास करता है। यह अधिचित्त शिक्षा है। इस भूमिका का लक्षण है-ध्यान प्राप्ति, इसमें अच्युत समाधि का लाभ होता है । जैनविचारणा में इस भूमि की तुलना अप्रमत्त संयत नामक सप्तम गुणस्थान से की जा सकती है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org