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________________ 100 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 (अर्हत् अवस्था) को प्राप्त करने तक निम्न चार भूमियों (अवस्थाओं) को पार करना होता है। (१) श्रोतापन्न भूमि (२) सकृदागामी भूमि (३) अनागामी भूमि (४) अर्हत् भूमि स्मरण रखना चाहिये कि प्रत्येक भूमि में दो अवस्थाएं होती हैं- १. साधना की व्यवस्था (मार्गावस्था) तथा २. सिद्धावस्था (फलावस्था)। (१) श्रोतापन्न भूमि-श्रोतापन्न जिसका शाब्दिक अर्थ होता है धारा में पड़ने वाला। अर्थात् जो साधक साधना अथवा कल्याण मार्ग के प्रवाह में गिरकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। बौद्ध विचारणा के अनुसार जब साधक निम्न तीन संयोजनों (बन्धनों) का क्षय कर देता है, तब वह इस अवस्था को प्राप्त करता है (१) सत्काय दृष्टि- देहात्म बुद्धि अर्थात् शरीर या नश्वर देह को आत्मा मानना, उसके प्रति ममत्व या मेरापन रखना (स्वकाये दृष्टिः आत्मात्मीय दृष्टि:-चन्द्रकीति) (२) विचिकित्सा-संदेहाल्मकता तथा (३) शीलव्रत परामर्श अर्थात् व्रत उपवास आदि में आसक्ति दूसरे शब्दों में मात्र कर्म-काण्ड के प्रति रुचि । इस प्रकार जब साधक दार्शनिक मिथ्या दृष्टिकोण (सत्काय दृष्टि) एवं कर्म-काण्डात्मक मिथ्या दृष्टिकोण शीलवत परामर्श) का त्याग कर सर्व प्रकार के संशयों (विचिकित्सा) की अवस्था को पार कर जाता है, तब वह इस श्रोतापन्न भूमि पर आरूढ़ हो जाता है। दार्शनिक एवं कर्मकाण्डात्मक मिथ्या दृष्टिकोणों एवं संदेहशीलता के समाप्त हो जाने के कारण इस भूमिका से पतन की सम्भावना नहीं रहती है और साधक निर्वाण की दिशा में अभिमुख हो प्रगति करता रहता है। श्रोतापन्न साधक निम्न चार अंगों से सम्पन्न होता है १. बुद्धानुस्मृति–बुद्ध में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। २. धर्मानुस्मृति-धर्म में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। ३. संघानुस्मृति-संघ में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है । ४. शील एवं समाधि से युक्त होता है ।। श्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त साधक विचार ( दृष्टिकोण ) एवं आचार दोनों से शुद्ध होता है। जो साधक इस श्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह अधिक से अधिक सात जन्मों में निर्वाण लाभ कर ही लेता है । जैन विचारणा के अनुसार क्षायिक सम्यक्त्व से युक्त चतुर्थ सम्यक् दृष्टि गुणस्थान से सातवें अप्रमत्त संयत गुणस्थान तक की जो अवस्थाएँ हैं, उनकी तुलना श्रोतापन्न अवस्था से की जा सकती है। क्योंकि जैन धर्म के अनुसार भी इन अवस्थाओं में साधक दर्शनविशुद्धि एवं चरित्र विशुद्धि से युक्त होता है। इन अवस्थाओं में सातवें गुणस्थान तक वासनाओं का प्रकटन तो समाप्त हो जाता है लेकिन, उनके बीज ( राग-द्वेष एवं मोह) सूक्ष्म रूप में बने रहते हैं। कषायों के तीनों चौक समाप्त होकर मात्र संज्वलन चौक शेष रहता है। इसी बात को बौद्ध धर्म यह कह कर प्रकट करता है कि श्रोतापन्न अवस्था में कामधातु (वासनाएँ) तो समाप्त हो जाती है, लेकिन रूप धातु ( आश्रव-राग, द्वेष एवं मोह ) शेष रहती है । (२) सकृदागामी भूमि-श्रोतापन्न अवस्था में साधक कामराग (इन्द्रिय लिप्सा) तथा प्रतिघ ( दूसरे के अनिष्ट करने की भावना ) नामक अशुभ बन्धक प्रवृत्तियों का क्षय करता है, लेकिन उसमें बन्धन के कारण आश्रवों ( राग, द्वेष और मोह ) का पूर्णतः अभाव नहीं होता। सकृदागामी भूमि में उसकी साधना का मुख्य लक्ष्य ‘आश्रव क्षय' ही होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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