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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
और दूसरी उपशम विधि । क्षायिक विधि में वासनाओं एवं कषायों को नष्ट करते हुए आगे बढ़ा जाता है और उपशम विधि में उनको दबाकर आगे बढ़ा जाता है। एक तीसरी विधि इन दोनों के मेल से बनती है, जिसे क्षायोपशम विधि कहते हैं। जिसमें आंशिक रूप में वासनाओं एवं कषायों को नष्ट करके और आंशिक रूप में उन्हें दबा करके आगे बढ़ा जाता है। वे गुणस्थान तक तो साधक क्षायिक, औपशमिक अथवा उनके संयुक्त रूप क्षयोपशम विधि में से किसी एक द्वारा अपनी विकास यात्रा कर लेता है, लेकिन ८ गुणस्थान से इन विधियों का तीसरा संयुक्त रूप समाप्त हो जाता है और साधक को क्षय और उपशम विधि में से किसी एक को अपना कर आगे बढ़ना होता है। जो साधक उपशम विधि से वासनाओं एवं कषायों को दबाकर आगे बढ़ते हैं, वे क्रमशः विकास करते हुए इस ११वें उपशान्तमोह नामक वर्ग में आते हैं। उपशम, दमन अथवा निरोध के द्वारा आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास की यह अन्तिम अवस्था है, इस अवस्था में वासनाओं एवं कषायों का पूर्ण निरोध हो जाता है। लेकिन जैनदर्शन में उपशमन या दमन साधना का सच्चा मार्ग नहीं है, उसमें स्थायित्व का अभाव होता है। दुष्प्रवृतियाँ यदि नष्ट नहीं हुई हैं तो चाहे उन्हें कितना ही दबाकर आगे बढ़ा जावे उनके प्रगटन को अधिक समय के लिये रोका नहीं जा सकता। वरन जैसे जैसे दमन बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उनके अधिक वेग से विस्फोटित होने की सम्भावना बढ़ती जाती है। यही कारण है कि जो साधक उपशम या दमन मार्ग से आध्यात्मिक विकास करता है, उसके पतन को सम्भावना निश्चित होती है। यह वर्ग इन वासनाओं के विरोध की पराकाष्ठा है, अतः उपशम या निरोध मार्ग का साधक स्वल्पकाल ( ४८ मिनट ) तक इस वर्ग में रहकर निरुद्ध वासनाओं एवं कषायों के पुन: प्रकटन के फलस्वरूप यहाँ से नीचे गिर जाता है। आचार्य नेमिचन्द्र गोम्मट्टसार में लिखते हैं कि जिस प्रकार शरद ऋतु में सरोवर का पानी मिट्टी के नीचे जम जाने से स्वच्छ दिखाई देता है लेकिन उसकी निर्मलता स्थायी नहीं होती है, मिट्टो के कारण समय आने पर वह पुनः मलिन हो जाता है, उसी प्रकार जो आत्माएँ मिट्टी के समान कर्मबल के दब जाने से नैतिक प्रगति ए आत्मशुद्धि की इस अवस्था को प्राप्त करते हैं, वे समयावधि के पश्चात् पुन पतित हो जाते हैं' अथवा जिस प्रकार राख में दबी हुई अग्नि वायु के योग से राख के उड़: जाने पर प्रज्वलित होकर अपना काम करने लगती है, उसी प्रकार दमित वासनाएँ संयोग पाकर पुनः प्रज्वलित हो जाती हैं और साधक पुनः पतन की ओर चला जाता है। इस सम्बन्ध में गीता और जैनाचार दर्शन का मतैक्य है। दमन एक सीमा पश्चात् अपना मूल्य खो देता है । गीता कहती है दमन से विषयों का निवर्तन तो हो जाता है, लेकिन विषयों के पीछे रहने वाले रस अर्थात् वैषयिकवृति का निवर्तन नहीं होता । वस्तुतः उपशमन की प्रक्रिया में संस्कार निर्मूल नहीं होने से उनकी परम्परा समय पाकर पुनः प्रवृद्ध हो जाती है, इसीलिए कहा गया है कि उपशम-श्रेणी या दमन के द्वारा आध्यात्मिक विकास करने वाला साधक साधन के उच्च स्तर पर जाकर मी पतित हो जाता है। यह ग्यारहवाँ गुणस्थान अवश्य पुनरावृत्ति का है, जबकि अग्रिम बारहवां गुणस्थान अपुनरावृत्ति का है। १. कदकफलजुदजलं वा सरये सरवाणियं व णिम्मलयं ।
सयलोवसतं मोहो उवसंतकसायमो होदि ॥-गोम्मट्टसार ६१
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