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________________ आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम - गुणस्थान सिद्धान्तः एक तुलनात्मक अध्ययन 35 है, उसके हेतु सजग होकर अपनी शक्ति का संचय करती है, यह सातवाँ गुणस्थान है । आगे वह अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता का उद्घोष करती हुई उन विदेशियों से संघर्ष प्रारम्भ कर देती है। संघर्ष की प्रथम स्थिति में यद्यपि उसकी शक्ति सीमित होती है और शत्रु-वर्गं भयंकर होता है, फिर भी अपने अद्भुत साहस और शौर्य से उसको परास्त करती है, यह आठवाँ गुणस्थान है | नवें गुणस्थान की तुलना युद्ध के बाद आन्तरिक व्यवस्था को सुधारने और छिपे हुए शत्रुओं का उन्मूलन करने से है । ( ९ ) अनिवृत्तिकरण ( अनिबृत्ति बाहर सम्पराय गुणस्थान )) - आध्यात्मिक विकास मार्ग पर गतिशील साधक जब कषायों में केवल बीज रूप ( संज्वलन ) लोभ को छोड़कर शेष सभी कषायों का क्षय या उपशम कर देता है, यथा जब उसकी कामवासना जिसे जैन पारिभाषिक शब्दों में वेद कहते हैं समूल रूपेण नष्ट हो जाती हैं, तब आध्यात्मिक विकास की यह अवस्था प्राप्त होती है । इस अवस्था में साधक में मात्र सूक्ष्म लोभ तथा हास्य, रति, अरति, भय शोक और घृणा यह भाव शेष रहते हैं । जैन शब्दवलि में इन भावों को नोकषाय कहा गया है । साधना की इस अवस्था में भी इन भावों (नोकषायों) की उपस्थिति से कषायों के पुनः उत्पन्न होने की सम्भावना बनी रहती है, क्योंकि उनके कारण अभी शेष बने हुए हैं । यद्यपि साधक का उच्चस्तरीय आध्यात्मिक विकास हो जाने से यहाँ यह सम्भावना अत्यल्प ही होती है । (१०) सूक्ष्म सम्पराय - आध्यात्मिक साधना की इस अवस्था में साधक कषायों के कारणभूत हास्य, रति, अरति, भय, शोक और घृणा इन पूर्वोक्त ६ मनोभावों को भी नष्ट (क्षय) अथवा दमित ( उपशांत ) कर देता है और उसमें मात्र सूक्ष्म लोभ शेष रहता है । साधक में मोहकर्म की २८ कर्मप्रकृतियों में २७ कर्म प्रकृतियों के क्षय या उपशम हो जाने पर जब मात्र संज्वलन लोभ शेष रहता है, तब इस गुणस्थान की प्राप्ति करता है । इस गुणस्थान को सूक्ष्म सम्पराय इसलिये कहा जाता है, क्योंकि इसमें आध्यात्मिक पतन के कारणों में मात्र सूक्ष्म लोभ ही शेष रहता है । टॉटिया के शब्दों में "आध्यात्मिक विकास की उच्चता में रहे हुए इस सूक्ष्म लोभ की व्याख्या अवचेतन रूप से शरीर के प्रति रहे हुए राग के अर्थ में की जा सकती है" " । (११) उपशान्त मोह गुण थान --जब आध्यात्म मार्ग का साधक पूर्व अवस्था में रहे हुए सूक्ष्म लोभ को भी उपशांत कर देता है, तब यह ऐसी विकास श्रेणी को प्राप्त करता है । लेकिन आध्यात्मिक विकास में अग्रसर हुए साधक के लिए यह अवस्था अत्यन्त खतरनाक है । विकास की इस कक्षा में मात्र वे ही आत्माएं आती हैं, जो वासनाओं के दमन के मार्ग या उपशम श्रेणी से विकास करती हैं । जो आत्माएँ वासनाओं के सर्वथा निर्मूल करते हुए क्षयिक श्रेणी से विकास करती हैं, वे इस वर्ग में नहीं आकर सीधे १२वें गुणस्थान में आती हैं । यद्यपि यह नैतिक विकास की एक उच्चतम अवस्था है, लेकिन निर्वाण के आदर्श से संयोजित नहीं होने के कारण साधक का यहाँ से लौटना अनिवार्य हो जाता है । यह आत्मोत्कर्ष की वह अवस्था है, जहाँ से पतन निश्चित होता है । प्रश्न होता है ऐसा क्यों ? जैन विचारकों के अनुसार नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की दो विधियाँ हैं, एक क्षायिक विधि 1. Jain Studies P. 278. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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