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________________ 94 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 के नाम से जानी जाती हैं । इस गुणस्थान का यह नामकरण इसी प्रक्रिया के आधार पर हुआ है । जिस प्रकार कोई बन्धनों से बंधा हुआ व्यक्ति उन बन्धनों में से अधिकांश जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर प्रसन्नता का अनुभव करता है। साथ ही पहले वह जहाँ अपनी स्वशक्ति से उन बंधनों को तोड़ने में असमर्थ था, वहीं अब वह अपनी शक्ति से उन शेष रहे हुए बन्धनों को तोड़ने की कोशिश करता है और बन्धन-मुक्ति की निकटता से अपूर्व प्रसन्न होता है । ठीक इसी प्रकार इस गुणस्थान में आने पर आत्मा कर्म रूप बन्धनों का अधिकांश भाग में नाश हो जाने से एवं कषायों के विनष्ट होने से भावों की विशुद्धि रूप अपूर्व आनन्द की अनुभूति करता है तथा स्वतः ही शेष कर्मावरणों को नाश करने का सामर्थ्य अनुभव कर उन्हें नष्ट करने का प्रयास करता है । इस अवस्था में साधक मुक्ति को अपने अधिकार क्षेत्र की वस्तु मान लेता है। सदाचरण की दृष्टि से वस्तुतः सच्चे पुरुषार्थ-भाव का प्रकटीकरण इस अवस्था में होता है। यद्यपि जनदर्शन नियति (दैव) और पुरुषार्थ के सिद्धान्तों में एकान्तिक दृष्टिकोण नहीं अपनाता है, लेकिन फिर भी यदि हम पुरुषार्थ और नियति के प्रधान्य की दृष्टि से गुणस्थान सिद्धांत पर विचार करें तो प्रथम से सातवें गुणस्थानों तक के सात वर्गों में नियति की प्रधानता प्रतीत होती है और आठवें से चौदहवें गुणस्थान तक के सात वर्गों में पुरुषार्थ का प्राधान्य प्रतीत होता है। जैन विचारणा यह स्वीकार करती है कि यथा प्रवृत्तिकरण की पूर्व अवस्था तक जो कि सम्यक आचरण की दृष्टि से सातवें गुणस्थान के अन्तिम चरण में होती है, नैतिक चरित्र का विकास मात्र गिरि-नदी-पाषाण-न्याय से होता है । इस गुणस्थान तक चरित्र विकास में संयोग की ही प्रधानता होती है, उसमें आत्मा का स्वतः का प्रयास आपेक्षिक रूप से अल्प ही माना जा सकता है। आत्मा कर्मों की शृंखला तथा तज्जनित वासनाओं में इतनी बुरी तरह जकड़ा हुआ होता है कि उसे स्वशक्ति के उपयोग का अवसर ही प्राप्त नहीं होता है । यहाँ तक कर्म आत्मा को शासित करते हैं, लेकिन आठवें गुणस्थान से यह स्थिति बदल जातो है । अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा अब आत्मा कर्मों पर शासन करने लग जाता है । प्रथम सात गुणस्थानों में आत्मा पर कर्म का और अन्तिम सात गुणस्थानों में कर्मो पर आत्मा का वर्चस्व होता है । दूसरे शब्दों में कहें तो आत्म-विकास की १४ कक्षाओं में प्रथम ७ कक्षाओं तक अनात्म का आत्म पर और अन्तिम ७ कक्षाओं में आत्म का अनात्म पर अधिशासन होता है । गणस्थान का सिद्धान्त आत्म और अनात्म व्यावहारिक संयोग की अवस्थाओं का चित्रण है । विशुद्ध अनात्म और विशुद्ध आत्म दोनों ही उम्के क्षेत्र रो परे हैं । ऐसे किसी उपनिवेश की कल्पना कीजिये, जिस पर किसी विदेशी जाति ने अनादिकाल से आधिपत्य कर रखा हो और वहाँ की जनता को गुलाम बना लिया हो, यह प्रथम गणस्थान है, उस पराधीनता की अवस्था में ही शासक-वर्ग के द्वारा प्रदत्त सुविधाओं का लाभ उठाकर वहाँ की जनता में स्वतन्त्रता की चेतना का उदय हो जाता है, यह चतुर्थ गुणस्थान है। बाद में वह जनता स्वराज्य की माँग प्रस्तुत करती है और कुछ प्रयासों और कुछ परिस्थितियों के आधार पर उसकी इस मांग को बल प्राप्त होता है, यह पाँचवाँ गुणस्थान है । इसमें सफलता को प्राप्त कर अपने हितों की कल्पना के सक्रिय होने पर औपनिवेशिक स्वराज्य की प्राप्ति का प्रयास करती है और संयोग उसके अनुकूल होने से उसकी वह मांग स्वीकृत हो जाती है, यह छठा गुणस्थान है । औपनिवेशिक स्वराज्य की इस अवस्था में वह पूर्ण स्वतन्त्रता की प्राप्ति का प्रयास करती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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