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आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम- गुणस्थान सिद्धान्तः एक तुलनात्मक अध्ययन
में अवशेष वासना रूपी शत्रु सेना पर भी विजय पा ली जाती है, लेकिन फिर भी उनका राजा ( सूक्ष्म लोभ) छद्मरूप से बच निकलता है । दसवें गुणस्थान में उस पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है |
लेकिन यह विजय दो रूप में चलता है - एक तो वह जिसमें शत्रु सेना को नष्ट करते हुए आगे बढ़ा जाता है, दूसरा वह जिसमें शत्रु सेना के अवरोध को दूर करते हुए प्रगति की जाती है । दूसरी अवस्था में शत्रु सैनिकों को पूर्णतः विनष्ट नहीं किया जाता, मात्र उनके अवरोध को समाप्त कर दिया जाता है, वे तीतर बीतर कर दिये जाते हैं । इन्हें जैन पारिभाषिक ब्दावली में क्रमशः क्षायिक श्रेणी और उपशम श्रेणी कहा जाता है। क्षायिक श्रेणी मोह कषाय एवं वासनाओं को निर्मूल करते हुए आगे बढ़ा जाता है, जबकि उपशम श्रेणी में उनको निर्मूल नहीं किया जाता मात्र उन्हें दमित कर दिया जाता है । लेकिन यह दूसरे प्रकार की विजय यात्रा विजेता के लिए अहितकर ही सिद्ध होती है । वासना रूपी शत्रु सैनिक समय पाकर एकत्रित हो उस विजेता पर उस वक्त हमला बोल देते हैं, जबकि विजेता विजय की याद की विश्रान्ति की दशा में होता है और उसे पराजित कर उस पर अपना अधिकार जमा लेते हैं । ऐसे दूसरे प्रकार के साधक की विजय यात्रा के बाद की विश्रान्ति उसकी पराजय का ही कारण बन जाती है। इसे ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती उपशान्त मोह की अवस्था कहा जाता है | जहाँ से साधक पुनः पतित हो जाता है। लेकिन जो विजेता शत्रु सेना को निर्मूल करता हुआ आगे बढ़ता है, उसकी विजन के बाद की विश्रान्ति उसके अग्रिम विकास का ही कारण बनती है । इस अवस्था को क्षीणमोह नामक बारहवाँ गुणस्थान कहा जाता है । आगे हम इन पर विस्तार से विचार करेगें ।
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(८) अपूर्वकरण - यह आध्यात्मिक साधना की एक विशिष्ट अवस्था है । इस अवस्था
विशिष्ट प्रकार के आध्यात्मिक
में आत्मा कर्मावरण के काफी हलका हो जाने के कारण एक आनन्द की अनुभूति करता है । ऐसी अनुभूति पूर्व में कमी नहीं हुई होती है, अतः यह अपूर्व कही जाती है । इस अवस्था में साधक अधिकांश वासनाओं से मुक्त होता है । मात्र बीजरूप ( संज्वलन ) माया और लोभ ही शेष रहते हैं । शेष अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानी, और प्रत्याख्यानी कषायों की तीनों चौकड़ियाँ तथा संज्वलन की चौकड़ी में से भी संज्वलन क्रोध एवं संज्वलन मान भी या तो क्षीण हो जाते हैं अथवा दमित (उपमित) कर दिये जाते हैं और इस प्रकार साधक वासनाओं से काफी अंश में ऊपर उठ जाता है । आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति करता है, वरन् उसमें एक प्रकार की भी हो पाता है, जिसके फलस्वरूप वह पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और सकता है साथ ही उसके नवीन कर्मों का बंध भी अल्पकालिक एवं अल्प मात्रा में ही होता है। इस अपूर्व अवसर का लाभ उठाकर इस अवस्था में साधक उस प्रकटित आत्मशक्ति के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों की काल- स्थिति एवं तीव्रता को कम करता है तथा कर्म वर्गणाओं को ऐसे क्रम में रख देता है, जिससे उनका समय के पूर्व ही फलभोग किया जा सके, साथ ही वह अशुभ फल देने वाली कर्म - प्रकृतियों को शुभ फल देने वाली कर्म-प्रकृतियों में परिवर्तित कर लेता है । इन्हें जैन पारिभाषिक शब्दावलि में ( १ ) स्थिति घात, (२) रसाघात, (३) गुणश्रेणी, (४) गुण संक्रमण और (५) अपूर्व स्थितिबंध कहा जाता है । यह समस्त प्रक्रिया " अपूर्वकरण"
अतः वह न केवल एक आत्मशक्ति का प्रकटन तीव्रता को कम कर
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