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VAISHALI INSTILUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
जाता है। लेकिन फिर भी इस गुणस्थानवर्ती आत्मा में मूर्छा या आसक्ति नहीं होती है ।
इस वर्ग में आने के लिये साधक को मोह-कर्म की निम्न १५ प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करना होता है।
(१) स्थायी प्रबलतम ( अनन्तानुबंधी ) क्रोध, मान, माया और लोम-- ४ (२) अस्थायी किन्तु अनियंत्रणीय ( अप्रत्याख्यानी ) क्रोध, मान, माया और लोम-४ (३) नियंत्रणीय ( प्रत्याख्यानी ) क्रोध, मान, माया और लोभ-४ (४) मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह-३
इस अवस्था में आत्म-कल्याण के साथ लोककल्याण की भावना और तदनुकूल प्रवृत्ति भी होती है। आत्मा पुद्गलासक्ति या कर्तृत्व भाव का त्याग कर विशुद्ध ज्ञाता एवं द्रष्टा के स्वस्वरूप में अवस्थिति का प्रयास तो करता है, लेकिन फिर भी देह भाव या प्रमाद अवरोध उपस्थित करता रहता है, अतः इस अवस्था में पूर्ण आत्मजागृति सम्भव नहीं होती है, इसलिए साधक को प्रमाद के कारणों का उन्मूलीकरण या उपशमन करना होता है और जब वह उसमें सफल हो जाता है, तब विकास की अग्रिम कक्षा में प्रविष्ट हो जाता है ।
(७) अप्रमत्त संयत गुणस्थान-आत्म-साधना में सजग. वे साधक इस वर्ग में आते हैं जो देह में रहते हुए भी देहातीत भाव से युक्त हो आत्म स्वरूप में रमण करते हैं और प्रमाद पर काबू पा लेते हैं। यह अवस्था साधक की पूर्ण सजगता की अवस्था है, ऐसे साधक का ध्यान अपने लक्ष्य पर केन्द्रित रहता है, लेकिन यहाँ पर दैहिक उपाधियाँ साधक का ध्यान विचलित करने का प्रयास करती रहती हैं। कोई भी सामान्य साधक ४८ मिनिट से अधिक देहातीत भाव से अपने ध्येय के प्रति सतत जागरूक अवस्था में नहीं रह पाता है। दैनिक उपाधियाँ उसे विचलित कर ही देती हैं, अत इस वर्ग में साधक का निवास अल्पकाल के लिए ही होता है। इस वर्ग में कोई भी साधक एक अन्तर्मुहुर्त ( ४८ मिनट ) से अधिक नहीं रह पाता है । इसके पश्चात् भी यदि वह देहातीत भाव में रहता है तो विकास की अग्रिम श्रेणीयों की ओर प्रस्थान कर जाता है या देहभाव-जागृति होने पर लौटकर पुनः नीचे के छठे दर्जे में चला जाता है । अप्रमत्त संयत गुणस्थान में साधक समस्त प्रमाद के अवसरों (जिनकी संख्या ३७५०० मानी गई है ) 'से वचता है।
. इस सातवें गुणस्थान में आत्मा अनैतिक आचरण की सम्भावनाओं को समूल नष्ट करने के लिए शक्ति संचय करता है। यह गुणस्थान नैतिकता जौर अनैतिकता के मध्य में होने वाले संघर्ष की पूर्व तैयारी का स्थान है। इस गुणस्थान में साधक अनैतिक जीवन की शत्रु-सेना के सम्मुख युद्धभूमि में पूरी सावधानी एवं जागरूकता के साथ डट जाता है । अग्रिम गुणस्थान उसके संघर्ष की अवस्था के द्योतक हैं । आठवाँ गुणस्थान संघर्ष के उस रूप को सूचित करता है, जिसमें प्रबल शक्ति के साथ शत्रु-सेना के राग द्वेष आदि अनेक प्रमुखों के साथ-साथ वासना रूपी शत्रु-सेना का बहुलांश विजित कर लिया जाता है । नवें गुणस्थान
१. २५ विकथाएँ, २५ कषाय नोकषाय सहित, ६ इन्द्रियाँ मन सहित, ५ निद्राएँ
और २ राग द्वेष इन सब के गुणनफल से यह ३७५०० की संख्या बनती है। ( २५-२५४६४५४२ = ३७५०० )
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