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आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम- गुणस्थान सिद्धान्तः एक तुलनात्मक अध्ययन 91
समझा गया है । पंचम गुणस्थानवर्ती साधक साधना - पथ पर फिसलता तो है, लेकिन उसमें सम्भलने की क्षमता भी रहती है । यदि साधक प्रमाद के वशीभूत न हो और फिसलने के अवसरों पर इस क्षमता का सचमुच उपयोग करता रहे तो विकास-क्रम में आगे बढ़ जाता है, अन्यथा प्रमाद के वशीभूत होने पर इस क्षमता का समुचित उपयोग न कर पाने के कारण अपने स्थान से गिर भी सकता है । ऐसे साधक के लिए यह आवश्यक है कि क्रोधादि कषायों की बाह्य अभिव्यक्ति का अवसर आने पर उनका नियंत्रण करे एवं मानसिक विकृति का परिशोधन एवं विशुद्धिकरण करे । जो व्यक्ति चार मास के अन्दर अन्दर उनका नियंत्रण, परिशोधन तथा परिमार्जन नहीं कर लेता, वह इस श्रेणी से गिर जाता है ।
(६) प्रमत्त सर्वविरति सम्यकदृष्टि गुणस्थान ( प्रमत्त संयत गुणस्थान ) -- यथार्थं बोध के पश्चात् जो साधक हिंसा, झूठ, मैथुन आदि अनैतिक आचरण से पूरी तरह निवृत्त होकर नैतिकता के मार्ग पर दृढ़ कदम रखकर बढ़ना चाहते हैं, वे इस वर्ग में आते हैं । यह गुणस्थान सर्वविरति गुणस्थान कहा जाता है, अर्थात् इस गुणस्थान में स्थित साधक अशुभाचरण अथवा अनैतिक आचरण से पूर्ण रूपेण विरत हो जाता है । जैसे साधक में क्रोधादि कषायों की बाह्य अभिव्यक्ति का भी अभाव सा होता है, यद्यपि अन्तर में बीज रूप में वे बनी रहती हैं । उदाहरण के रूप में क्रोध के अवसर पर ऐसा साधक बाह्य रूप से तो शान्त बना रहता है, क्रोध को बाहर अभिव्यक्त नहीं होने देता है और इस प्रकार उस पर नियंत्रण भी करता है, लेकिन फिर भी क्रोधादि कषाय वृतियाँ उसके अन्तर मानस को झकझोरती रहती हैं । लेकिन ऐसी दशा में भी साधक अशुभाचरण और अशुभ मनोवृत्तियों पर पूर्णतः विजय प्राप्त करने के लिए ढ़तापूर्वक आगे बढ़ने का प्रयास करता रहता है । जब-जब वह कषायादि प्रमादों पर अधिकार पा जाता है, तब-तब वह आगे के वर्ग ( अप्रमत्त संयत गुणस्थान ) में चला जाता है और जब-जब कषाय आदि प्रमाद उस पर हावी होते हैं, तब-तब वह उस अग्रिम वर्ग से पुन: लौटकर इस वर्ग में आ जाता है। वस्तुतः यह उन साधकों का विश्रांति स्थल है, जो साधनापथ पर प्रगति तो करना चाहते हैं, लेकिन यथेष्ट शक्ति के अभाव में बढ़ नहीं पाते हैं, अतः इस वर्ग में रहकर विश्राम लाभ करते हुए शक्तिसंचय करते हैं । इस प्रकार यह गुणस्थान अशुभाचरण से अधिकांश रूप में विरति एवं अशुभ मनोवृतियों को क्षीण करने का सबल प्रयास ही साधना की अवस्था का परिचायक है । दूसरे शब्दों में इस अवस्था में अधिकांश रूप में आचार शुद्धि तो हो जाती है, लेकिन विचार ( भाव ) शुद्धि का प्रयास चलता रहता है ।
इस वर्ग का साधक साधनापथ में परिचारण करते हुए आगे बढ़ना तो चाहता है लेकिन प्रमाद की उपस्थिति उसके लिए अवरोधक बनी रहती है। ऐसे साधक को साधना के लक्ष्य का मान तो रखता है, लेकिन लक्ष्य के प्रति जिस सतत जागरूकता की अपेक्षा है, उसका उसमें अभाव होता है । जैन श्रमण ( संन्यासी ) इसे छठे और अग्रिम सातवें वर्ग के मध्य परिचारण करते रहते हैं । गमनागमन, भाषण आहार, निद्रा आदि दैनिक आवश्यकताओं एवं इन्द्रियों को अपने विषय की ओर चंचलता आदि के कारण जब-जब वे लक्ष्य के प्रति सतत जागरूकता नहीं रख पाते, तब-तब वे इस गुणस्थान में आ जाते हैं, और पुनः लक्ष्य के प्रति जागरूक बनकर सातवें गुणस्थान में चले जाते हैं । वस्तुतः इस गुणस्थान में रहने का कारण देह-भाव होता है, जब साधक में देह-भाव आता है, तब वह सातवें से इस छठे गुणस्थान में आ
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