SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम-गुणस्थान सिद्धान्तः एक तुलनात्मक अध्ययन 97 (१२) क्षीण मोह गुणस्थान- जैसा कि हम पूर्व में बता चुके हैं कि जो साधक उपशम या निरोध विधि से आगे बढ़ते हैं वे ११वें गुणस्थान तक पहुँच कर पुनः पतित हो जाते हैं, लेकिन जो साधक क्षायिक विधि अर्थात् वासनाओं एवं कषायों का क्षय करते हुए या उन्हें निर्मल करते हुए आगे विकास करते हैं, वे १०वें गुणस्थान में रहे हुए अवशिष्ट सूक्ष्म लोम को भी नष्ट कर सीधे १२वें गुणस्थान में आ जाते हैं। जैन दृष्टि से इस वर्ग में आने वाला साधक मोहकर्म की २८ प्रकृतियों को पूर्णरूपेण समाप्त कर देता है और इसी कारण इस गुणस्थान को क्षीण-मोह गुणस्थान कहा जाता है। यह अवस्था नैतिक विकास की पूर्णता है, इस अवस्था में आने पर साधक के लिये कोई नैतिक कर्तव्य शेष नहीं रहता है । उसके जीवन में नैतिकता और अनैतिकता के मध्य होने वाला संघर्ष सदैव के लिए समाप्त हो जाता है क्योंकि संघर्ष के कारण कोई भी वासना अवशेष नहीं रहती है । उसकी समस्त वासनाएँ समस्त आकांक्षाएं क्षीण हो चुकी होती हैं । ऐसा साधक राग-द्वेष से भी पूर्णतः मुक्त हो जाता है, क्योंकि राग द्वेष का कारण मोह इस स्थिति में समाप्त हो जाता है। इस नैतिक पूर्णता की अवस्था को यथाख्यात चारित्र कहते हैं, दूसरे शब्दों में इसे यथार्थ आचरण भी कह सकते हैं। जैन विचारणा के अनुसार मोह कम आठ कर्मों में प्रधान है, लाक्षणिक शब्दों में यदि कहें तो यह बन्धन में डालने वाले कर्मों की सेना का प्रधान सेनापति है, इसके परास्त हो जाने पर शेष कर्म भी भागने की तैयारी में लग जाते हैं। मोह-कर्म के नष्ट हो जाने के पश्चात् थोड़े ही समय में दर्शनावरण, ज्ञानावरण, अन्तराय यह तीनों कर्म भी नष्ट होने लगते हैं। क्षायिक मार्ग पर आरूढ़ साधक १०वें गुणस्थान के अन्तिम चरण में उस अवशिष्ट सूक्ष्म लोमांस को नष्ट कर इस १२वें गुणस्थान में आते हैं और एक अन्तर्मुहूत जितने अल्पकाल तक इसमें स्थित रहते हुए इसके अन्तिम चरण में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक तीनों कर्मों को नष्ट कर अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त शक्ति से शुरू हो विकास की अग्रिम श्रेणी में आरूढ़ हो जाता है । साधक को विकास की इस कक्षा में आ जाने पर पतन का कोई भय ही नहीं रहता है। वह विकास की अग्रिम कक्षाओं में ही बढ़ता है । जैसा कि हमने देखा यह अवस्था नैतिक पूर्णता की अवस्था है और व्यक्ति जब यथार्थ नैतिक पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो आध्यात्मिक पूर्णता भी उपलब्ध हो ही जाती है। विकास की शेष दो श्रेणियाँ उसी आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन नैतिकता में आध्यात्मिकता और नैतिकता दोनों अलग-अलग तथ्य न होकर एक दूसरे से संयोजित है । नैतिकता क्रिया है, आचरण है और आध्यात्मिकता उसकी उपलब्धि है। विकास की यह अवस्था नैतिकता जगत् से आध्यात्मिकता जगत् में संक्रमण की अवस्था है। यहाँ नैतिकता की सीमा परिसमाप्त होती है और विशुद्ध आध्यात्मिकता का क्षेत्र प्रारम्भ हो जाता है। (१३ सयोगी केवली गुणस्थान-१२वें गुणस्थान के प्रारम्भ में ही मोह कर्म तो सीण हो जाता और उसके अन्तिम चरण में साधक ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों का भी क्षय कर देता है और इस प्रकार चारों घाती कर्मों का क्षय करके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त शक्ति से युक्त हो आध्यात्मिक विकास की इस कक्षा में आ जाता है। इस वर्ग में आने वाला साधक अब साधक नहीं रहता, क्योंकि उसकी साधना के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy