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________________ आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम-गुणस्थान सिद्धान्तः एक तुलनात्मक अध्ययन 85 (१) मिथ्यात्व-गुणस्थान-मिथ्यात्व-गुणस्थान आत्मा की वह अवस्था है, जिसमें आत्मा यथार्थ ज्ञान और सत्यानुभूति से वंचित रहता है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह अवस्था आत्मा की बहिर्मुखी अवस्था है, जिशमें प्राणी यथार्थ बोध के अभाव में बाह्य सुखों की कामनाओं के पीछे ही भटकता रहता है और उसे आध्यात्मिक या आत्मा के आन्तरिक सुख का रसारवादन नहीं हो पाता। अयथार्थ दृष्टिकोण के कारण वह असत्य को सत्य और अधर्म को धर्म स्वीकार कर लेता है और फिर दिग्भ्रमित व्यक्ति की तरह लक्ष्यविमुख हो भटकता रहता है और अपने गन्तव्य को प्राप्त नहीं कर पाता। यह आत्मा की अज्ञानमय अवस्था है । नैतिक दृष्टि से इस अवस्था में प्राणी में शुभाशुभ या कर्तव्याकर्तव्य का यथार्थ विवेक नहीं होता है, दूसरे शब्दों में वह नैतिक विवेक से शून्य होता है। पारिभाषिक शब्दों में इसे इस रूप में कहा जाता है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में आत्मा दर्शन-मोह ओर चरित्र-मोह की कर्म-प्रकृतियों से प्रगाढ़ रूप से जकड़ा होता है। मानसिक दृष्टि से मिथ्यात्व-गुणस्थान में प्राणी तीब्रतम क्रोध मान, माया और लोम (अनन्तानुबन्धी काषाय) के वशीभूत होता है । वासनात्मक प्रवृत्तियाँ उस पर पूर्ण रूप से हावी होती हैं, जिनके कारण वह सत्य-दर्शन एवं नैतिक आचरण से वंचित रहता है। जैन दर्शन के अनुसार संसार की अधिकांश आत्माएँ मिथ्यात्व-गुणस्थान में ही हैं, यद्यपि इसमें भी दो प्रकार की आत्माएं मानी गई हैं- १. भव्य आत्मा-जो भविष्य में कभी न कभी वथार्थ दृष्टिकोण से युक्त हो नैतिक आचरण के द्वारा आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर सकेगी। २. अभव्य आत्मा-अर्थात् वे आत्माएँ जो न तो कभी अपना आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास कर सकेंगी और न यथार्थ बोध ही प्राप्त करेंगी। मिथ्यात्व-गुणस्थान में आत्मा । १. ऐकान्तिक धारणा, २. विपरीत धारणा, ३. वैनयिकता (रूढ परम्परा), ४. संशयशीलता और ५. अज्ञान से युक्त रहता है और इसलिए उससे यथार्थ दृष्टिकोण या सम्यग् दर्शन के प्रति रुचि का वैसे ही अमाव होता है, जैसे ज्वर से पीड़ित व्यक्ति को मधुर भोजन भी रुचिकर नहीं लगता है । जैन विचारणा के अनुसार व्यक्ति को यथार्थ दृष्टिकोण या सम्यक् दृष्टित्व की उपलब्धि के लिए जो करना है, वह मात्र यही है कि वह इन ऐकान्तिक एवं विपरीत धारणाओं का त्याग कर दे तथा अपने को पक्षाग्रह के व्यामोह से मुक्त रखे। जब व्यक्ति इतना कर लेता है, तब वह सम्यग दर्शन से युक्त बन जाता है । वस्तुतः सत्य पाने की वस्तु नहीं है, वह सदैव उसी रूप में उपस्थित है, हमारे अपने पास है, निज गुण है, वह तो मात्र पक्षाग्राह और ऐकान्तिक व्यामोह के कारण आवरित रहता है। जो आत्माएं इस पक्षाग्रह और ऐकान्तिक व्यामोह से मुक्त नहीं होती हैं, वे अनन्त काल तक इसी वर्ग में बनी रहती हैं और अपना आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास नहीं कर पाती हैं। फिर भी यह स्मरण रखना चाहिए कि इस प्रथम वर्ग की सभी आत्माएं आध्यात्मिक विकास-कक्षा की दृष्टि से समकक्ष नहीं है। उनमें तारतम्य है। पं० सुखलालजी के शब्दों में प्रथम गुणस्थान में १. विशेष विवेचन के लिये देखिये-जैन आचारदर्शन का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन-मिथ्यात्व प्रकरण (डॉ० सागरमल जैन) २. मिच्छंतं वेदंतो जीवो विवरीय दसणो होदि । ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो । -गोम्मटसार जीवकाण्ड १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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