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________________ 84 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 गुणश्रेणी के अनुसार उदय हो सकता है। यदि उदय (फल भोग) प्रथम सम्यक्त्व-मोह का होता है तो आत्मा विशुद्धाचरण करता हुआ विकासोन्मुख हो जाता है, लेकिन यदि मिश्रमोह अथवा मिथ्यात्व मोह का विपाक होता है तो आत्मा पुनः पतनोन्मुख हो जाता है और अपने अग्रिम विकास के लिए उसे पुनः ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया को करना होता है । लेकिन फिर भी इतना निश्चित है कि वह किसी सीमित समय में अपने आदर्श को उपलब्ध कर ही लेता है । प्रन्थिभेद प्रक्रिया का द्विविध रूप-सम्भवतः यहाँ यह एक शंका हो सकती है कि ग्रन्थिभेद की यह प्रक्रिया तो सम्यग् दर्शन नामक चतुर्थ गुणस्थान की उपलब्धि के पूर्व प्रथम गुणस्थान में ही हो जाती है, फिर सप्तम, अष्टम और नवम गुणस्थानों में होने वाले यथा प्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण कौन सा है। वस्तुतः ग्रन्थि भेद की यह प्रक्रिया साधना के क्षेत्र में दो बार होती है। पहली बार प्रथम गुणस्थान के अन्तिम चरण में और दूसरी सातवें-आठवें और नवें गुणस्थान में। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि यह दो बार क्यों होती है ? और पहली और दूसरी बार की प्रक्रियाओं में क्या अन्तर है ? वास्तविकता यह है कि जैन दर्शन में बन्धन के प्रमुख कारण मोह की दो शक्तियाँ मानी गयी हैं- १. दर्शनमोह और २. चरित्रमोह दर्शनमोह यथार्थ शुभाशुभ बोध (सम्यग् दर्शन) का आवरण करता है, मोह के इन दो भेदों के आधार पर ही ग्रन्थिभेद की यह प्रक्रिया भी दो बार होती है। प्रथम गुणस्थान के अन्त में होने वाली ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया का सम्बन्ध दर्शनमोह के आवरण को समाप्त करने से है, जबकि सातवें, आठवें, नवें गुणस्थान में होने वाली ग्रन्यिभेद की प्रक्रिया का सम्बन्ध चरित्रमोह के आवरण को समाप्त करने से है। पहली बार प्रक्रिया के अन्त में सम्यग दर्शन का लाभ होता है. जबकि दसरी बार प्रक्रिया के अन्त में सम्यक चरित्र का उदय होता है । एक में वासनात्मक वृत्तियों का विरोध है, दूसरी में वासनात्मक आचरण का विरोध होता है। एक में दर्शन शुद्ध होता है और दूसरी से चरित्र शुद्ध होता है। जैन दर्शन के अनुसार साधना की इतिश्री दर्शन-विशुद्धि न होकर चरित्र-विशुद्धि है, यद्यपि यह एक स्वीकृत तथ्य है कि दर्शन-विशुद्धि के पश्चात् यदि उस दर्शन-विशुद्धि में टिकाव रहा तो चरित्र-विशुद्धि अनिवार्यतया होती है। सत्य के दर्शन के पश्चात् उसकी उपलब्धि एक अवश्यता है । यही बात इस प्रकार कही जाती है कि सम्यग् दर्शन का स्पर्श कर लेने पर आत्मा की मुक्ति अवश्य ही होती है। गुणस्थान का सिद्धान्त-जैन विचारणा में नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास-क्रम की १४ अवस्थाएँ मानी गई हैं । १. मिथ्यात्व, २ सास्वादन, ३. मिश्र, ४. अविरत, सम्यक् दृष्टि, ५. देशविरत सम्यक् दृष्टि, ६. प्रमत्त संयत, ७. अप्रमत्त संयत (अप्रमत्तविरत), ८ अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्म सम्पराय, ११. उपशांत मोह, १२. क्षीण मोह, १३. सयोगी केवली और १४. अयोगी केवली। प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक का सम्बन्ध दर्शन से करते हैं, जबकि पाँचवें से बारहवें गुणस्थान तक का विकास-क्रम सम्यक् आचरण से सम्बन्धित है। शेष १३ वा एवं १४वाँ गुण स्थान आध्यात्मिक विकास-क्रम की पूर्णता को बताता है, यद्यपि इसमें दूसरे और तीसरे गुणस्थानों का सम्बन्ध विकास-क्रम न होकर वे मात्र चतुर्थ गुणस्थान की ओर होने वाले पतन से है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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