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________________ Interfers area का विकासक्रम- गुणस्थान सिद्धान्तः एक तुलनात्मक अध्ययन 83 और साधना के क्षेत्र में यही कार्य अत्यन्त दुष्कर है । आत्मा इस प्रक्रिया के सम्पादन में ही वास्तविक नैतिक संघर्ष की अवस्था में होता है । मोह राजा के बन्दीगृह का यही वह द्वितीय द्वार है, जहाँ सबसे अधिक बलवान एवं सशस्त्र प्रहरी है। यदि इन पर विजय लाभ कर लिया जाता है तो फिर मोह पर विजय लाभ करना सहज हो जाता है । अपूर्वकरण की अवस्था में आत्मा कर्म - शत्रुओं पर विजय लाभ करते हुए निम्न पाँच प्रक्रियाओं को करता है । (१) स्थितिघात ( २ ) रसघात (३) गुणश्रेणी (४) गुणसंक्रमण और ( ५ ) अपूर्व बन्ध । (१) स्थितिघात कर्म विपाक को समय मर्यादा में परिवर्तन करना । (२) रसधात - कर्म विपाक एवं बन्धन की प्रगाढ़ता (तीव्रता ) में कमी । (३) गुणश्रेणी - कर्मों को ऐसे क्रम में रख देना, जिससे उनके विपाक काल के पूर्व ही उनका फलयोग किया जा सके । (४) गुणसंक्रमण - कर्मों का अवान्तर प्रकृतियों में रूपान्तर अर्थात् जैसे को सुखद वेदना में रूपान्तरित कर देना । ( ५ अपूर्व बंध - क्रियमाण क्रियाओं से होने वाले बन्ध का अत्यन्त अल्पकालिक एवं अल्पतर मात्रा में होना । दुखद वेदना (स) अनावृतिकरण - आत्मा अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा राग और द्वेष की ग्रन्थियों वा भेदन कर विकास की दिशा में जब अपना अगला चरण रखता है, तब विकास की वह प्रक्रिया अनावृतिकरण कहलाती है । इस भूमिका में आकर आत्मा मोह के आवरण को हटाकर अपने ही यथार्थं स्वरूप का दर्शन करता है, यही सम्यग् दर्शन के बोध की भूमिका है । जिसमें सत्य अपने यथार्थ स्वरूप में साधक के सम्मुख प्रकट हो जाता है । अनावृत्तिकरण में पुनः १ स्थितिघात, २. रसघात, ३. गुणश्रेणी, ४. गुणसंक्रमण और ५. अपूर्वबन्ध नामक प्रक्रिया सम्पन्न होती है, लेकिन इसके साथ ही इस अवस्था में एक अन्य प्रक्रिया होती है, जिसे 'अन्तरकरण' कहा जाता है । अन्तरकरण की इस प्रक्रिया में आत्मा दर्शनमोह नामक कर्म को प्रथमतः दो भागों में विभाजित करता है और इस प्रक्रिया में अन्तिम चरण में दूसरे माग को तीन उपविभागों में विभाजित करता है, जिन्हें क्रमश: १. सम्यवत्व मोह, २. मिथ्यात्वमोह और ३. मिश्रमोह कहते हैं । सम्यक्त्व मोह सत्य के ऊपर श्वेत कांच का आवरण है जबकि मिश्रनोह हल्के रंगीन और मिथ्यात्व मोह गहरे रंगीन कांच का आवरण है। पहले में सत्य के स्वरूप का दर्शन वास्तविक रूप में होता है, दूसरे में विकृत रूप में होता है, लेकिन तीसरा सत्य पूरी तरह आवरित रहता है। एक भाग का फल भोग अनावृत्तिकरण की प्रक्रिया के अन्तिम चरण में करता है और दूसरे भाग के फलभोग को एक अन्तर्मुहूर्त तक के लिए स्थगित कर उस समयावधि के पश्चात् उसका फलभोग करता है । इस प्रकार मध्यान्तर एक अन्तर्मुहूर्त तक समय वह यथार्थ दृष्टिकोण के द्वारा सत्य का साक्षात्कार करता है । इस यथार्थं दृष्टि या सम्यक् दर्शन के काल में भी वह गुणसंक्रमण नामक क्रिया करता है और मिथ्यामोह की कर्म - प्रकृतियों को मिश्रमोह तथा सम्यक्त्व-मोह में रूपान्तरित करता रहता है । सम्यक्दर्शन के उदयकाल की एक अन्तर्मुहूर्त की समय-सीमा समाप्त होने पर पुनः दर्शन मोह की पूर्व में विभाजित तीन वर्गों में से किसी भी वर्ग की कर्म-प्रकृति का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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